क्षत्रिय चारण

क्षत्रिय चारण
क्षत्रिय चारण

सोमवार, 13 अगस्त 2018

देविसिंह रत्नु (स्वामी कृष्णानंद सरस्वती)

*यदि किसी एक ही इंसान में महात्मा गांधी व विवेकानंद जी को देखना है तो वह है दसोड़ी के स्वामी कृष्णानन्द सरस्वती*

राजस्थान की धरती सदैव ही विर प्रसूता रही है । यहां किसी भी व्यक्ति के जन्म की सार्थकता सिद्ध करने की कसौटी है ।

*माई एड़ा पूत जण के दाता के सुर*

*नितर रेजे बांजड़ी , मती गवाज़े नूर*

इसी  कसौटी पर सो प्रतिशत खरे उतरने वाले महापुरुषो में में एक महान आत्मा 1900 ई. में दासोड़ी ग्राम में श्री दौलतसिंह जी रतनु के घर श्री मति उमा बाई की कोख से देवीसिंह नाम के रुप में जन्म हुआ  

शुरु से ही देवीसिंह जी रतनु को समाज सेवा एवम संगठन निर्माण में ने बड़ी रुचि थी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी (काशी )से अध्ययन पूर्ण कर आप समाज को जगाने में लग गए
आपका सम्पर्क राजस्थान की तत्कालीन सभी रियासतो से था । आपकी बेबाकी से अन्याय के विरुद्ध बोलना व लिखना तथा राजा महाराजाओ को तथा जन सामान्य को कुरीतियो के विरुद्ध जगाना का कार्य सतत चलता रहा
उस समय स्वतन्त्रा संग्राम चरम ओर था तब आपका सम्पर्क ठाकुर केशरी सिंह जी बारहठ , खरवा ठाकुर गोपाल सिंह जी , प्रताप सिंह जी , रास बिहारी बोस , आदि से हुआ तथा सेठ जी से आपका प्रगाढ़ परिचय रहा । आप जोशी मठ से सन्यास ग्रहण कर स्वामी कृष्णा नन्द जी सरस्वती बन गए ऋषिकेश में कोढियों की सेवा करने लगे । उसी दरमियान आपकी मुलाकात वर्धा आश्रम में महात्मा गांधी से हुई तो गांधी जी इनकी सेवा से बड़े प्रभावित हुए ।
गांधी जी ने इन्हें राष्ट्र भाषा प्रचार का कार्य सोपा
इस कार्य हेतू आपने पूरे भारत का भर्मण किया तत्पश्यात आप *नेपाल पहुचे थे वहां पर अपने संस्था गत रूप से सेवा कार्य सूरु किया । वहां आपको आँख देने वाला बाबा के नाम से पुकारा जाने लगा । वहां से अफ़्रिका देशो केनिया , जांबिया , धाना , नाइजेरिया , ट्रांसवाल, आदि स्थानों पर आपने दिनबन्धु समाज ' *हयूमन सर्विस ट्रस्ट* ' *की स्थापना की*।

*पूर्व राष्ट्रपति श्री वी . वी . गिरी ने कहा "स्वामी कृष्णा नंद जी सरस्वती ' भारतीय संस्कृति के दूत है*

आप विश्व भर्मण के क्रम में लंदन गए वहां  हेरो में स्वामी कृष्णा नंद आश्रम की स्थापना की वहा पर ' *मिल्स ऑन विल्स* ' कार्यक्रम से भूखो को भोजन दिलाया

वहां से आप अमेरिका गए वहां के *राष्ट्रपती केनेडी व रुजवेल्ट आप से बहुत प्रभावित हुए वहां ह्यूमन सर्विस ट्रस्ट की स्थापना की। वह के अखबार में आलेख छपा पेनीलेस बट बेरी रिच सेंट ' आपने  वहां सयुक्त राष्ट्र सभा को भी सम्बोधित किया* ।

1967 ई. में आप मोरिशस पधारे , यहां पर तक फ्रांसीसी  सरकार के जुल्म से आहत  भारतीय मूल के लोग बड़े दुखे थे , स्वामी जी का अवतरण ही दुख निवारण के लिए हुआ था *आपने मोरीरिश पहुच कर धोषणा  करके कहा कि में यहां। शिष्य बनाने नही नेता तैयार करने आया हु*।

*शिव सागर राम गुलाम ने स्वामी जी का शिष्यत्व स्वीकार किया व इनके नेतृत्त्व में मोरीरिश में स्वामी जी ने एक लाख रामायण , एक लाख गीता , छह लाख हनुमान चालीसा  मोरीरिश के घर घर पहुचा कर पूरे देश मे अलख जगा दी । जगा हुआ देश भला कब तक गुलाम रहेगा आपके नेतृत्व में देश। आजाद हुआ* ।

*स्वामी जी को राष्ट्र पिता का दर्जा दिया गया*

 । आर्युवेद को राजकीय मान्यता मिली । आपने अफगानिस्तान में स्वामी कृष्णा नंद पाठशालाओं की स्थापना की । स्वामी धर्म प्रचार हेतु अरब देशों  में भी गए थे जहां भगवा वस्त्र धारण कर कोई जा नही सकता था ।
तो स्वामी जी ने सफेद वस्त्र पहन कर कोई जा नही सकता तो  स्वामी जी ने स्वेत वस्त्र धारण किये तथा वहां सेवा केंद्रों की स्थापना की आज लगभग 60 से 65 देशो में इनके सेवा केंद चल रहे है ।

सन्दर्भ- चारण दर्पण

सुल्तान सिंह देवल
चारणाचार पत्रिका, उदयपुर

विर योद्धा नरुजी कविया

*!!सुप्रसिध्द यौध्दा नरुजी कविया !!*


*नरूजी कविया सुप्रसिध्द भक्त-वर कवि सिध्द अलूनाथ जी कविया के बङे सुपुत्र थे, नरुजी एक उत्कृष्ट कोटि के यौध्दा थे,बादशाह अकबर ने सन 1587 में मुगल साम्राज्य के सुदुर पूर्व के प्रान्तों में बंगाल, बिहार, उङीसा के अफगानों एंव स्थानीय शासकों के निरन्तर होने वाले उपद्रवों का दमन करनेहेतु आमेरके कछवाहा शासक मानसिंह को सर्वोच्च सेनापति और उच्च सुबेदार के पद पर नियुक्त किया था, मान सिंह ने अपने रण कौशल तथा सूझ-बूझ से अपने कर्तव्य को पूर्णकिया !!*

*नरू जी कविया मानसिंह की कछवाही सेनाके एक प्रतिष्ठित यौध्दा के रूपमें इस सेना के अभियान में साथ में थे, अफगान कतलू खां लोहानी ने उङीसा का शासन हस्तगत कर उसने पुरी के राजा को हरा कर प्रसिध्द जगन्नाथ मंदिर पर भी कब्जा कर लिया था ! उसने वहां पुजारियों तथा तीर्थ यात्रीयों पर तरह-तरह के अत्याचार करने प्रारम्भ कर दिए ! अतः मानसिंह ने अपने कुंवर जगतसिंह के नेतृत्व में एक बङी सेना कतलूखां के विरूध्द भेजी थी, यह घटना अप्रेल1590 की है ! उस सेना में जिन विश्वासपात्र सेनानायकों को कुंवर के साथ भेजा गया, उनमें नरूजी कविया प्रमुख थे !!*

*अफगानों ने शाही सेना पर भीषण अति भीषण आक्रमण कर दिया 21मई1590 को सूर्यास्त के समय के प्रहार को झेलने में मुगल सेना भी असमर्थ रही और उसी उसके पांव उखङ गए ! परन्तु कुछ वीरों ने बङी वीरता के साथ शत्रुऔं का सामना करते हुए,अपने प्राणों का बलिदान किया जिनमें चारण नरूजी कविया एंवं राठौङ महेश दास जी बीका प्रमुख थे ! इन दोनो महावीरों ने अपने प्राणों की आहूति देकर जगतसिंह की रक्षा की ! नरू जी कविया ने असाधारण वीरता दिखाते हुए सम्मुख युध्द में अपने भाले द्वारा कतलू खां को मारते हुए स्वंय भी वीर गति को प्राप्त हो गए ! नरूजी की इस अलौकिक अदभूत वीरता पूर्वक प्राणौ उत्सर्ग की प्रशस्ति में महाराजा श्रीपृथ्वीराज जी राठौङ का यह डिंगऴ गीत प्रसिध्द है !!*              

*!! गीत !!*

*जां लागै दुखे नहीं सजावौ,*
*बीजां तजिया जूंझ बंग !*
*मोसै नरु तणै दिन मरणे,*
*अण लागां दूखियो अंग !!*

*पांव छांडता चढतां पैङी,*
*ईख्यो अलू सुतण निज अंत !*
*अण लागां दुखेवा आंणै,*
*दीठा नह फूटा गज दंत !!*

*अनराईयां हेमकर ओपम,*
*रहियो रूतो महारण !*
*कूंता हूंत मेहणी कवियै,*
*तद तीखा जाणांय तण !!*

*कतलू सरस बदंता कंदक,*
*टऴ्यो नहीं सुरातन टेक !*
*साहे खाग नरु पहुंतो श्रग,*
*ओजस बोल न सहियो ऐक !!*


*यह वीर गीत उस समय के प्रसिध्द कवि व यौध्दा पृथ्वीराज जी राठौङ जो कि उस समय में मौजूद थे व उस समय की सारी घटनाऔं के उपर गहरी सूझबूझ रखते थे उनके बनाने से इस गीतकी विश्वसनियता अधिक प्रामाणिक होती है, पृथ्वीराज जी ने महाराणा प्रतापसिंह जी पर भी बहुत काव्य लिखा था !!*

राजेंन्द्रसिंह कविया संतोषपुरा सीकर !!

ठाकुर दयालदासजी सिंहढायच

!! ठाकुर दयालदास जी सिंहढायच !!

दयालदासजी चारण जाति री सिंहढायच शाखा में जन्मिया अनमोल रतन हा, अर इतिहास व साहित री महत्ती सेवा कीधी, राजस्थान रा उगणींसवी सदी रा अनेक नामी ख्यातकारां में दयालदासजी रो नाम हरावऴ पांत में आवै है, दयालदास जी ऐक इतिहास री ख्यात लेखक ही नहीं हा वे ऐक सुकवि अर सटीक टीकाकार भी हा !

उणां आपरे लेखन रे सागै बीकानेर राज्य री बहियां, वंशावऴियां, पट्टा परवाना एंव शाही फरमाना ने भी जुगत सूं जचाय अर घणी सूझबूझ अर लगन सूं करियो !!

दयालदास जी तीन ख्यातां है !
(1) राठौङां री ख्यात सन 1852 ई. !
(2) ख्यात देशदर्पण सन 1870 ई. !
(3) आर्याख्यान कल्पद्रुम 1877 ई. !

ख्यातां सगऴी गद्य रूप में रचियोङी है पंवार वंश दर्पण पद्य रूप में पिरोयेङी है
इण सारी लाखीणी लेखणी री रचनावां टाऴ भी सिंहढायच रो सांगोपांग सृजन कम सूं कम बीसेक फुटकर गीतां रे रूप में मिऴै है !!

जोधपुर राज्य मे सिंहढायचो री जागीर मोघङा सूं आयर बीकानेर राज्य रा कुबिया ठिकाने मे आबाद हुया सिंहढायच चारणां रे घरै ठाकुर खेतसिंह जी रे पुत्र रूप में विक्रमी सम्वत 1855 में दयालदास जी रो जन्म हुयो, ठाकुर खेतसिंह उण समै प्रतिष्ठित जागीरदार चारण घराणैं री गिणती में आवता हा !!

डिंगऴ अर राजस्थानी साहित रा मर्मज्ञ दयालदासजी बीकानेर रियासत रा तीन शासकां महाराजा रतनसिंह, महाराजा सरदारसिंह, महाराजा डूंगरसिंह आं तीनां रा राजकाज में साथै रैया अर योद्घा, राजकवि, ख्यातकार, दरबारी मंत्री इतिहासकार अर कुशल कूटनितिज्ञ रे रूप में आपरी महता रौ निरूपण करियो ! इणमें ऐक बात घणी ईधकी है कि आपरै ख्यात लेखण में कहाणी किस्सां री बजाय बीकानेर राज रा आरम्भ सूं आखिर बरसां तांई रो जीवन्त अर जागृत लेखन लिखियो, जिको मूंढै बोलतो सरस अर रूचिकर इतियास है !

दयालदासजी सिंहढायच पर सुरसती देवी री अनहद कृपा ही, उणरो सुरसती सिमरण रो ऐक दोहो जिणमें मातेश्वरी नें अरदास कर सुरसत रे साथे धनदा देवी लिछमी री कृपा भी सुरसती सूं अनुषंशा करने करवाय लीवी !!

वीणां धारद कर विमल,
भव तारद सुर भाय !
हंसारूढ दारद हरो,
शारद करो सहाय !!


राजेन्द्रसिंह कविया संतोषपुरा सीकर !!

बुधवार, 8 अगस्त 2018

मेवाड प्रधानमंत्री महामहोपाध्याय श्यामलदासजी दधवाडीया(चारण)

*कविराजा श्यामलदास जी दधिवाडिया द्वारा शिक्षा हेतु सद्प्रयास  और मेवाड़ चारण समाज के गौरवशाली प्रसंग*
✒🌸🌸🌸🌸🌸🌸

 विलक्षण देविपुत्र चारण समाज में प्रतिभा तो मातेश्वरी की अटुट कृपा से  जन्मजात होती है मगर शिक्षा का व्यापक  ज्ञान व्यवस्थित रूप से जिनको मिला उन्होंने दुनिया में नाम दर्ज करवाया।
राजस्थान में शिक्षा का सामुहिक प्रयास सर्वप्रथम उदयपुर में कविराजा शामलदास जी के प्रयासों से सम्वत 1937 में हुआ। कविराजा शामलदास के गुणों से महाराणा सज्जनसिंह जी इतने प्रभावित थे कि वे राजपूत जाति व राजपूत राज्यों के लिए समस्त चारण जाति को ईश्वरीय देन समझने लगे। उनके मन में यह दृढ़ हो गया की राजपूत जाति को पतन से रोकना है तो पहले चारणों को सुशिक्षित करना चाहिए। इनसे बढ़कर निर्भिक सलाहकार,पूर्ण विश्वस्त और शुभचिंतक अन्य कोई नहीं हो सकता।इस बात को वे जोधपुर के महाराजा जसवंतसिंह जी और महाराजा कृष्णगढ़ शार्दुल सिंह जी को अनेक बार कहा करते थे।इसी विश्वास व संस्कार के कारण व  कविराजा की प्रार्थना पर महाराणा सज्जनसिंह जी ने क्षत्रियों की वार्षिक आमदनी का दशमांश हिस्सा जिला हाकिमों की मारॅफत मंगवा कर चारण पाठशाला के नाम से मदरसा बनवा कर उसमें चारणों के लड़कों की पढ़ाई में खर्च करने का निश्चय किया। तदनुसार सम्वत 1937 (सन 1880)में पाठशाला और छात्रालय कायम हुआ उसमें छः मास्टर नियत किए गए,साथ में नौकरों ,पठन पाठन की सामग्री, छात्रों का भोजन वस्त्र समस्त खर्च राज्यकोष से दिया जाने लगा, जब तक पाठशाला एवं छात्रावास का स्वतंत्र भवन नहीं बन तब तक उमराव सरदारों की हवेलीयों में काम चलाया जाता। सबसे पहले *सौदा बारहठों के गांव राबछा* में पहाड़ जी की हवेली में इसका श्री गणेश हुआ , जिसमें क्रांतिकारी केसरी सिंह जी बारहठ ने भी शिक्षा प्राप्त की थी।
प्रत्येक सोमवार को जहां महाराणा की इच्छा होती वहां चारण छात्रों सहित, बड़े बड़े साहित्यकारों विद्वानों के साथ सभा होती जिसमें साहित्य रसज्ञ ठाकुर मनोहर सिंह जी डोडिया (सरदारगढ़), स्वामी गणेशपुरी जी,डिंगल कब प्रतिनिधि महियारिया मोड़ सिंह जी विद्वर उज्जवल फतहकरण जी , शहर के अन्य कवियों के साथ महाराणा स्वयं सभाध्यक्ष पद पर आसीन रहते । यह व्यवस्था चार साल तक चली उस समय एक सौ से अधिक चारण छात्र एकत्रित हो चुके थे क्योंकि बालकों को लाने आ काम स्वयं कविराजा शामलदास जी करते थे।
 *ये दिन चारण जाति के लिए अहो भाग्य के थे।*
 परन्तु ईश्वर की सृष्टि में उलूक स्वभाव आदमी भी उत्पन्न होते ही है। इतनी सुविधाएं होने पर भी पाषाणजीवन अनेक चारण अपने बालकों को नहीं भेजते थे।विवश होकर कविराजा जिला हाकिमों द्वारा पुलिस व जागीरी सवार भेजकर लड़कों को पकड़वा मंगाते । उस समय का द्रश्य दु:ख और करूणा से भरा हुआ था। दुःख था चारणों के मुर्खतापूर्ण मोह पर व करूणा थी बालकों के रूदन को शतगुणित करने वाले घर के भीतर माता,भुआ,बहिन, पिता भाई दादा आदि के बूढ़ क्रंदन पर । बालक का एक  हाथ होता सवार के हाथ में व दुसरा हाथ होता पिता व अन्य परिजनों के हाथ में। इस प्रकरण में सहस्त्रों गालियां पड़ती कविराजा जी को, उनके घर वंश पर आग रखी जाती और रोम रोम में किड़े पटके जाते। कल्पना की जा सकती है कि किन विपरीत परिस्थितियों में चारण समाज में शिक्षा हेतु कविराजा ने अथक प्रयास किए।
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महेंद्र सिंह चारण

रविवार, 29 जुलाई 2018

THIKANA - THERASANA JAGIR👑

THERASANA (JAGIR)


DYNASTY - CHARAN
CLAN - SINHDHAYACH
SUB CLAN - GOPALSINGHOT
VILLAGES - 4
STATE -  IDAR,GUJARAT
TITLE - THAKUR
REVENUE - INR 30,000
AREA - 93.74 km2
HINDI NAME - थेरासणा
FOUNDED BY - THAKUR GOPALSINGH JI
GRANTED BY - RATHOD RAO KALYANMALJI OF IDAR PRINCELY STATE

*>Thakur Gopalsingh ji Sinhdhaych*

 He was the first ruler (Thakur) of "Therasana" Jagir which included 4 villages.

  King of idar Once after demise of heaven Mahatma Sanyaji was in greif and sorrow because Sanyaji was a special gem of state court ministers and king of idar.
King Kalyanmal needed  a good soldier and literate "Charan" in the  place of Sanyaji for governing the idar state. King of Mewar got to know the whole thing on the visit of idar king to court of mewar .
On realising the pain and sorrow of the king he decided that Special court Gopalsingh Sinhdhaych he was back then a warrior and a great literate would be sent to idar by agreeing on specific terms.
King kalyanmal decided to give the  highest income's Jagir in state of 4 villages ,double tazim's nobel , 2 elephants, 12 horses were anchored in leg and accustomed to thakur gopal singh.

Many Thakur's and Jagirdar's of Therasna in court of idar Dynasty has served in the form of their ministers and counsellors for many years.

*-kr.jaipal singh Therasna*

reference-
- *furbus rasmala*
- *rao ji's bahi*

चारण हुँ मे

*चारण हूँ मैं*

*ले.पद्मश्री ठाकुर सूर्यदेवसिंह जी पालावत*

इतिहासों ने पढ़ा,
रसों ने जिसको गाया
तलवारों की छौहों ने,
जिसको दुलराया,
वही कलम का धनी,
ज्ञान का कारण हूँ मैं||
चारण हूँ मैं||

शिव से लेकर शक्ति,
शक्ति का विश्वासी हूँ|
महाशक्ति में विश्वासों की
मैं गंगा हूँ, मैं काशी हूँ|
पूजित हिंगलाज व चावंड
स्थापित करणी माता आवड़
विदित गिरवरा, बैचर बरवड़,
खोडियार कामख्या तेमड़
इन्दर, सायर, सोनल, देवल
सैणी राजू बट्ट अर बल्लर|
महम्माय का कृत कृतज्ञ हूँ|
चरण धूल हूँ पुण्यनमन हूँ,
बांकीदास, उम्मेद, मुरारि,
सावल, दुरसा, जाड़ा, लखा|
लंघी काना सायां झूला
पिंगल हरदा कागा दूल्हा|
सूर्यमल बारू वीरों सा,
रचना, साहस और शौर्य की
त्रिवेणी का झरना हूँ मैं|
प्राप्त अधिकृत अधिकारों के
विरोध का धरना हूँ मैं|
जोरावर प्रताप केसरी,
तिल तिल विगलित तदापि प्रञ्चलित
अमर क्रान्ति का कर्ता हूँ मैं|
मारवाड़ की बुद्धि शिरा विञ्जी लालस सी
उज्ज्वल व ब्रदी गाडण सी|
फैली ज्ञान प्रखरता हूँ मैं|
मैं श्रद्धा का तीर्थ, आस्था का हूँ मंदिर,
रहा राज्य चाणक्य, सभा श्रृंगार,
सनातन धारण हूँ मैं|
भाषा पंडित प्रवण स्नेह का श्रावण हूँ मैं||
चारण हूँ मैं||
चारण हुूँ मैं।

अति अतीत के स्मरित विस्मरित,
घटनाओं का एकल लेखक|
रण प्रांगण के घोर युद्ध का,
गर्जक तर्जक अंकक मापक|
समय समय से लिखी जा रही,
विविध विधा का रूपक चित्रक|
ईसरदास प्रभृति सन्तों की,
भक्तमाल का मोती मानक|
पखाडों की महिमाओं का,
जगदम्बा का गाथा गायक|
उतर भारत चर्चित चिन्हित,
करणी माँ का अर्चक वन्दक|
चारू चरित उतम अन्तर्मन,
आदर्शों का शाश्वत सरजक|
काल-भाल पर अमिट उभरता,
अक्षर, सुन्दर, सत्य सार्थक|
अवतारों की पीढ़ी हूँ मैं,
सदाचार की सीढी हूँ मैं,
भावी का मैं पूर्व निमन्त्रण,
वर्तमान आमन्त्रण हूँ मैं||
चारण हूँ मैं||

चारणो मे सिंहढायच वंश की जागीरे

🚩 *सिंहढायच वंश की जागीरे*🦅

*🚩मोगडा🦅:- चारण नरसिंह जी  भांचलीया को मंडोर के शासक पडीहार नाहडराव ने सवंत 1116 मे हाथी घोडा व सोना जवेरात भेंट कर सोनानवेस आलीशान  "मोघडा" जागीर प्रदान की । राज्य के दसोंदी पद से सुसोभीत कर दरबार मे सन्मान भरा स्थान दीया।ईनके वंशज सिंहढायच कहेलाते है। यह जागीर ग्राम सिंहढायचो का मुळ स्थान है।*

रैवाडा:- चारण चैनसिंह बीजावत सिंहढायच को कुंपा जोगावत सिवाणा ने 1710 से पूर्व रैवाडा जागीर प्रदान की।

उजला:- ठा.लालसिंह नोखावत सिंहढायच को रावल गौवींद नरावत ने उजला जागीर प्रदान की।

पूनावा:-ठा.पूनाजी सिंहढायच को सीरोही राव अखैराज ने पूनावा जागीर प्रदान की।

कानावास:-सिंहढायच रतनसिंह को राव कानजी शिवराजोत ने कानावास जागीर मे दीया।

नेठवा:- मनीषी समर्थदानजी सिंहढायच को कश्मीर दरबार मेे से  कई कुरब कायदे प्रदान कीए।

ओसारा:- सिंहढायच गोंवीदसिंह को बांसवाडा रावल पृथ्वीसिंहजी ने 1825 मे ओसारा जागीर प्रदान की।

थेरासणा:-ठाकुर गोपालसिंह सिंहढायच को ईडर राजा राव कल्याणमलजी ने 1648 मे  30,000 आय के आलीशान चार गाँव का पट्टा जागीरी एनायत कीया।दरबार के सभी कुरब कायदे प्रदान कीए।

भारोडी:-
1865 के आसपास ठाकुर खुमानसिंह सिंहढायच को महाराणा शंभुसिंह जी ने भारोडी जागीर प्रदान की ।

*जयपालसिंह (जीगर बन्ना)थेरासणा*

और सिंहढायचो के जागीर गाँवो के ईतीहास की जानकारी कोई जानते हो तो कृपया 7984994645 पर मुजे मेसेज करे🙏🏾

महाराणा सांगा और शूरविर चारण ठा. जामण जी सौदा

*सेणुंदा ठिकाने के शूरविर चारण ठाकुर जामण जी सौदा*


  *मेवाड़ के भीलवाड़ा जिले में  ठाकुर जामण जी सौदा सेनुदा गाँव के जागीरदार थे । ये अपनी विद्वता व वीरता के लिए प्रसिद्ध थे* । *आपके पिता जी पालम जी व दादा जी का नाम ठाकुर बाजुड़ जी था* ,

*बाबर व राणा सांगा के बीच हुए 1527 ई के युद्ध मे ये राणा सांगा के साथ स्वयं युद्ध मे सेनापति के पद से लड़े थे* ।
*राणा सांगा के मस्तक में तीर लगने से ये जब गायल होकर मूर्छित हो गए थे । तब इन्हें युद्ध क्षेत्र से हटाकर बसवा लाया गया था । मुर्छा खुलने पर वीर राणा सांगा को युद्ध से हटाए जाने का बहुत ही दुख हुआ तब ठा. जामण सौदा ने राणा सांगा को सांत्वना दी कि युद्ध से लौटने के कारण कोई योद्धा अपयश का भागी नही होता है । भगवान कृष्ण स्वयं जरासध से युद्ध मे सात बार भागे थे किंतु आठवी बार विजयी होकर जरासंध का वध कर दिया । आज हम लोग मूर्छित अवस्था मे आपको युद्ध भूमि से उठा लाए है पर कल जब आप पुनः स्वस्थ होकर बाबर पर विजय प्राप्त करेंगे तब आपका युद्ध भूमि से लौट आना ही मेवाड़ के गौरव का कारण बनेगा* ।

*बाबर से  युद्ध में पराजित होने के कारण राणा सांगा बहुत ही निराश हो गया था तथा अत्यंत उदास रहता था वह न तो कभी महल से बाहर आता था व न ही किसी से मिलता जुलता था*

*तब जामण सौदा ने एक गीत की रचना कर राणा सांगा को सुनाया । उस गीत को सुन कर राणा सांगा इतने प्रभावित हुए की उन्होंने बकान नाम गाँव जामण सौदा को भेंट किया था । जामण सौदा एक युद्ध नायक थे तथा सन 1584 ई में माडु के बादशाह से लड़ते हुए पीली खाल में वीर गति को प्राप्त हुए थे । जामण सौदा के लिखे हुए कई डिंगल गीत उपलब्ध होते है* ।


*चारणाचार पत्रिका उदयपुर*
*सुल्तान सिंह देवल*

विर चारण खीमजी दधवाडीया और मेवाड



*धन राणा इकलिंग* ,
*धन मेवाडा देश* ।

*धन जैमल दधवाडिया*
*जीण घर खीम नरेश*


*धारता गाँव केउदयभाण जी के  पुत्र  खीम जी के नाम पर पढ़ा खेमपुर ठिकाने का नाम*

*मेड़ता परगने के दधवाड़ा गाँव से चितोड आये जेतसी को मिले धारता गाँव के उदैभान जी के पुत्र खीम जी अपनी किस्मत आजमाने मेवाड़ के ही सारंगदेवोत के ठिकाने बाठेड़ा के राव भोपत जी के पास आये*

*राव भोपत जी बाठेड़ा के जागीरदार थे व बहुत ही समझदार व गुणग्रही थे । उनकी समझदारी के चर्चे दूर दूर तक फैले हुए थे*
*खीम जी धारता से सुबह अपना धोड़ा लेकर बाठेड़ा के लिए निकले चलते चलते दोपहर हो गई थी सूरज सिर पर था तो खीम जी ने सोचा कि थोड़ा आराम कर लूं यह सोच कर वह एक घने पेड़ के नीचे साथ लाये चूरमा खा कर कुछ देर आराम करने लग गये ।  थोड़ी देर बाद उनके चेहरे पर धूप आने लगी तो वहां एक सर्प अपने फन से उनके मुंह पर छाव कर रखी थी तभी वहां से गुजर रहे सेठ ने यह नजारा देखा तो वह रुक गया व खीम जी के जगने का इंतजार करने लगा थोड़ी देर बाद खीम जी की नींद खुली तो साँप अपने बिल में चला गया तो सेठ जी ने खीम जी से आज के उनके सुकून सेठ को देने को कहा तो खीम जी बचपन से बड़े हुसियार थे मन ही मन उन्होंने  सोचा कि सेठ जी ने जरूर कुछ अच्छा देखा होगा तो खीम जी ने मना कर दिया सेठ जी के लाख समजाने पर भी खीम जी ने हा नही की तब सेठ ने कहा कि ठीक है एक वचन दे दो की जब आपकी नोकरी लग जाय और आप बहुत बड़े आदमी बन जाओ तो मुझे अपने पास नोकरी पर  रखना खीम जी ने हा कर दी  । और दोनों अपने अपने राश्ते निकल गये*

*सन्ध्या होते होते खीम जी बाठेड़ा पहुच गए वहां रावले में जाते ही राव भूपत जी को मुजरा किया तो चारण के बेटा होने के कारण राव ने भी मर्यादापूर्वक खड़े होकर कर खीम जी का ससम्मान करते हुए अपने पास बिठा कर पूरा परिचय लेते हुए आना का कारण पूछा  । कुछ देर बात करने में बाद  खीम जी का डेरा करवा दिया । खीम जी की वाक चतुराई रोबीले चेहरे तमीज व तहजीब से बहुत प्रभावित हुए । और खीम जी को अपने पास रख लिया । कुछ ही समय मे खीम जी ने कुछ ही समय मे राव जी का विश्वास जीत लिया अब क्या था अब तो राव जी जहां भी जाते खीम जी राव जी के साथ कहि भी ठिकाने में पधारे तो खीम जी साथ, शिकार पर जावे तो खीम जी साथ , उदयपुर महलो में आवे तो खीम जी साथ*,

*एक बार महाराजा करन सिंह जी ने अपनी सेवारत एक नरुका राजपूत को नाराज होकर  मरवा दिया था उस नरुका राजपूत कर छोटे भाई ने उसी दिन साफा फेककर सिर पर अंगोछा बांधकर कसम खाई की जब तक अपने भाई की मौत का बदला ना ले लू तब तक साफा नही बांधूगा । यह बात खीम जी ने राव भूपत जी से खीम जी ने सुन रखी थी*।

*एक दीन खीम जी उदयपुर दरबार के पास जा रहे थे राश्ते  एक शिकलिकर के वहा एक  अंगोछा बांधे गुड्सवार पर नजर पढ़ी जो शिकलिकर को यह कहते हुए सुना कि इस तलवार की धार ऐसी करना कि किसी दुसरे की तलवार पर ना हो मुह मांगा पैसा दूँगा खीम जी बड़े समझदार व आगामी स्तिथि को भाप चुके थे खीम जी ने उसके रोबीले चेहरे आखो में गुस्सा सिर पर अंगोछा देख कर समझ गए कि यह वही नरुका राजपूत है और आज कोई ना कोई अनिष्ट करेगा*

*खीम जी भी दूसरी गली के सिकलिकर को अपनी तलवार की धार के लिए देकर चले गए पर खीम जी को नीद कहा खीम जी सोच रहे थे कि यह नरुका करेगा क्या महाराणा तक तो पहुच नही सख्ता क्यों कि पहरा सख्त है सोचते सोचते खीम जी ने सोचा कि यह जरूर कुँवर जगत सिंह जी को यह कोई नुकसान पहुच सख्ता है क्यों कि कुँवर जगत सिंह जी को शिकार का बहुत सोख था वह हर रोज आपने मित्रो के साथ मछला मंगरा पर शिकार को जाते थे । राणा जी  रोज कुँवर जगत सिंह को अपने महलो के झरोखे से आते व जाते देखते थे*।

*सुबह होते होते खीम जी सीतला माता। मंदिर के वहा पहुच गए थोड़ी ही देर में वह अंगोछा बाँधे नरुका भी आ गया  नरुका ने सोचा यह कोई कुँवर के साथ शिकार पर जाने वाला गुड्सवार होगा  नरुका कुँवर जगत सिंह जी का इंतजार करने लगा खीम जी भी सतर्क थे । थोड़ी ही देर में महलो की तरह से 15 से 20 लोगो के हसने की आवाज व घोड़ो के तापो की आवाज सुनाई दी नरुका ने अपने घोड़ा की लगाम पकड़ अपना हाथ तलवार की मुठ पर रख दिया खीम जी को समझने में देर नही लगी नरुका आगे बढ़ा और अपने घोडे को कुँवर जगत सिंह के पास लगाते हुए जोर से चिल्लाया की सावधान कुँवर में अपने भाई का बदला लेने आया हु यह सब नजारा महलो से राणा जी देख कर घबरा गए कि आज तो कुँवर जी गए मगर अगले ही पल में देखा की खीम जी ने  घोड़े को आगे बढ़ाया ओर तलवार निकाल कर तूफान की तरह अपनी तलवार से नरुका के दो  टुकड़े कर दिए और अपना घोड़ा गुमा कर बेठेड़ा पहुच गए*

वहां जाकर राव भूपत जी को सारी कहानी बता दी राव जी ने खीम जी को गले लगाया व कहा कि शबाब खीम जी शाबास आज तो आपने कमाल कर दिया मेवाड़ केके धणी को बचा लिया तेरे इस कार्य से राणा जी तुज से तो खुश होंगे ही पर आज मेरा रुतबा भी बढ़ गया राव जी खीम जी को साथ लेकर महलो में पहुचे*

*वहां पहुचते ही कुवर जगत सिंह जी खीम की को पहचान लिया कि यही वो गुड्सवार था जिसने नरुका को मार गिराया*
*राणा जी का खुसी का कोई पार  नही था राणा जी ने खीम जी को अपने गले लगा कर कहा मेरे तीन बैठे थे आज से चार हो गए  ओर खीम जी का खर्च भी दूसरे राजकुमार की तरह राज कोष से बांध दिया*

*महाराणा करण सिंह जी के स्वर्गवास होने के बाद जगत सिंह जी सिंहासन पर बैठ कर राज्य संभाला तब खीम जी को सत्तर हजार सालाना की आमदनी वाला गाव ठिकरिया इनायत किया और महाराणा ने इस गाँव का नाम ठिकरिया से खिमपुरा रखा जो खीम जी  के नाम पर था जिसे आज खेमपुर के नाम से जाना जाता है यह उदयपुर जिले करीब 40 km है व  मावली तहसील में आता है । इनके वंसज आज भी खेमपुर व उदयपुर में निवास करते है*

*महाराज राज सिंह जी भी खीम जी को बहुत मॉन सम्मान देते थे एवम काका कह कर पुकारते थे*

*स्वभाव से खीम जी बड़े सकीन , दानी , व जिंदा दिली इन्शान थे*

*खीम जी वीर ओर  दानी के साथ साथ बड़े कवि भी थे उनकी वीरता के कारण मेवाड़ में उनको बड़ी जागीरी प्रदान की गयी*

*महाराणा अखे सिंह जी ने अपने पिता राज सिंह का बदला ले कर सभी दुश्मनो को मरवाया इस उपलक्ष में खीम जी ने एक गीत की रचना की जिससे सिरोही महाराव ने खीम जी को सिरोही जिले के कासिन्द्रा गाव दिया*

*सवत स्तर , सातो बरस , चेत सुदी चवदस* ,
*कायन्द्रा कवि खेम ने , अखमल दियो अवस्स*


*चारणाचार। पत्रिका उदयपुर*
*सुल्तान सिंह देवल*

विर अजीतसिंह जी मीषण ठिकाणा मेरोप

*चारण अजित सिंह जी गेलवा* (मिषण) ( *मेरोप डूंगरपुर* )

ब्रिटिश सरकार ने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता के बाद तुरंत हिंदुस्तान में हथियार पर पाबंदी लगा दी और उनके लिए अलग कानून बनाया। इसकी वजह से क्षत्रियों को हथियार छोड़ने पड़े। इस वक्त लूणावाड़ा के राजकवि अजित सिंह गेलवाले ने पंचमहाल के क्षत्रियों को एकत्र करके उनको हथियारबंधी कानून का विरोध करने के लिए प्रेरित किया। सब लूणावाड़ा की राज कचहरी में खुल्ली तलवारों के साथ पहुँचे। मगर ब्रिटिश केप्टन के साथ निगाहें मिलते ही सबने अपने शस्त्र छोड़ दिए और मस्तक झुका लिए। सिर्फ़ एक अजित सिंह ने अपनी तलवार नहीं छोड़ी। ब्रिटिश केप्टन आग बबूला हो उठा और उसने अजित सिंह को क़ैद करने का आदेश दिया। मगर अजित सिंह को गिरफ़्तार करने का साहस किसी ने किया नहीं और खुल्ली तलवार लेकर अजित सिंह कचहरी से निकल गए; ब्रितानियों ने उसका गाँव गोकुलपुरा ज़ब्त कर लिया और गिरफ़्तारी से बचने के लिए अजित सिंह को गुजरात छोड़ना पड़ा। वह गुजरात छोड़ कर राजस्थान के डूंगरपुर में आ गए यहां के महा रावल इनकी वीरता पर बड़े खुश हुए व इनको डूंगरपुर जिले में मेरोप गाँव एक ताम्र प्रत्र लिख  दिया जिसकी फोटो पोस्ट के साथ मे है ।  क्षत्रियोचित वीरता से प्रभावित कोई कवि ने यथार्थ ही कहा है कि-

*मरूधर जोयो मालवो, आयो नजर अजित;*
*गोकुलपुरियां गेलवा, थारी राजा हुंडी रीत*

*कानदास महेडु एवं अजित सिंह गेलवाने ने साथ मिलकर पंचमहाल के क्षत्रियों और वनवासियों को स्वातंत्र्य संग्राम में जोड़ा था। इनकी इच्छा तो यह थी कि सशस्त्र क्रांति करके ब्रितानियों को परास्त किया जाए। इन्होंने क्षत्रिय और वनवासी समाज को संगठित करके कुछ सैनिकों को राजस्थान से बुलाया था। हरदासपुर के पास उन क्रांतिकारी सैनिकों का एक दस्ता पहुँचा था। उन्होंने रात को लूणावाड़ा के क़िले पर आक्रमण भी किया, मगर अपरिचित माहौल होने से वह सफल न हुई। मगर वनवासी प्रजा को जिस तरह से उन्होंने स्वतंत्रता के लिए मर मिटने लिए प्रेरित किया उस ज्वाला को बुझाने में ब्रितानियों को बड़ी कठिनाई हुई। वर्षो तक यह आग प्रज्जवलित रही।


सन्दर्भ  अम्बा दान जी रोहड़िया
स्वतन्त्रा संग्राम में चरणों का योगदान आलेख जो कि मेवाड़ की परिवार परिचय पुस्तक में आ रहा है

चारणाचार पत्रिका उदयपुर
सुल्तान सिंह देवल 

हल्दीघाटी के सेनानायक विर चारण रामा सांदु

*हल्दी घाटी युद्ध मे चरणों का योगदान के आलेख से रामा सांदू जी का वर्णन*

मध्य काल मे कई चारण विद्धता के साथ ही साथ महान सेना नायक भी थे । उन्ही महान सेना नायको व योद्धाओ में एक प्रमुख नाम धर्मो जी सांदू के पुत्र रामा जी सांदू का आता है इनका जन्म मेवाड़ के चितोड़ जिले के  हुपा खेड़ी  गाँव मे हुआ ।वर्तमान में इस गाँव का नाम हापा खेड़ी के नाम से जाना जाता है ,  रामा जी सांदू महाराणा प्रताप की सेना के सेनानायक के रूप में हल्दी घाटी के युद्ध मे उपस्थित थे । उन्होंने बड़ी वीरता से युद्ध किया  तथा मुगल सेना को सर्वाधिक क्षति पहुचाने वाले दल के सेना नायक थे ।
दयाल दास राव द्वारा लिखित      " राणा रासो " में हल्दी घाटी के युद्ध का विस्तृत वर्णन मिलता है जिसमे एक भुजंगी छंद रामा सांदू के बारे में लिखा गया है ।

*भगी भीर भाऊ आशाउ उकढयौ*
*महा मोर मा झीनी के मुखख चढ़यो*
*जीते जुधध जोधा जुरे स्वामी कामा*
*पचारे तिन्हे पेखि चारनू रामा*

*ऐसी प्रकार "सगत रासो " के रचयिता गिरधर आसिया ने एक कपित लिख कर यह दर्शाया है कि युद्ध मे किन किन योद्धाओ ने भाग लिया।

उन्होंने लिखा है कि खमनोर नामक स्थान पर युद्ध हुआ राणा प्रताप की ओर से राजा रामशाह तंवर , ओर उसके दस सरदार आदि युद्ध मे काम आये*

बीकानेर के महाराणा पृथ्वीराज राठौड़ ने रामा सांदू के बलिदान पर एक डिंगल में गीत लिखा

इस युद्ध के ऊपर रामा जी सांदू ने  एक गीत लिखा जो महाराणा

 प्रताप द्वारा बहलोल खा लोदी के वध का सजीव वर्णन किया गया था ।

डॉ पुरषोत्तम लाल मेनारिया ने इतिहास से प्रमाणित करके उल्लेख किया है कि प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थ में उन्हें यह जानकारी के रूप में लिखी हुई मिली कि हल्दी घाटी में स . 1632 श्रावण बदी सातम राणा प्रताप सिंह जी कछवाहों मोनसिंघ सु बेढ़ तीण माह काम आया
1 सोनिगरा मोनसिंघ अखेरात
2 राठौड़ रामदास जेतमलोत ,
3 राजा राम सा तंवर गवालेर रो धणी
4 डोडियो भीम साडावत
5 पड़िहार सेठ
6 *सांदू रामा जी धरमावत*

इस प्रकार 6 प्रमुख सेनानायक युद्ध मे काम आय उसमें रामा सांदू जी सांदू भी महत्वपूर्ण स्थान रखते थे । कुछ ऐतिहासिक दशतावेजो में यह उलेख मिलता है कि हल्दी घाटी युद्ध मे  रामा जी सांदू घायल हुए थे । उनका उपचार किया गया । तथा वे महाराणा प्रताप के साथ निरंतर छापा मार युद्ध मे सेनानायक की तरह युद्ध मे मुगल सेना का सामना करते हुए देबारी में वीरगति को प्राप हुए थे  । एसी प्रकार मध्यकाल में रामा जी सांदू महान कवि के साथ साथ महान सेना नायक की तरह वीर गति को प्राप्त कर चारण जाती की कीर्ति को बढ़ा कर इतिहास में अमर हो गए



चारणाचार पत्रिका उदयपुर
सुल्तान सिंह देवल 

चारणो के गढपति (गढविर) पद का एक अनुठा उदाहरण


*शूरविर चारण ठाकुर कौलसिंह जी रतनु का प्राणोत्सर्ग*

चारण गढपति थे और वे गढ की रक्षा मे राह चलते भी अपना धर्म व मर्यादा समझकर मरना कबूल कर लेते थे। चारण का सत्य संभाषण व गढरक्षा का मर्यादित धर्म अप्रतीम शौर्य के साथ साथ हजारो वर्षो तक बडी शालीनता के साथ निर्वाहन कीया जाना देवी माता हिंगलाज की शक्ति से हो सका है। ईसलीए एसे उदाहरण सम्पूर्ण जगत मे केवल चारण राजपूत के सनातन मे ही मिलते है।

जोधपुर महाराजा मानसिंह के समय बीहारीदास खीची नामक राजपूत के एक अपराध पर महाराजा बडे क्रुद्ध हुए और उसे गीरफ्तार करने का आदेश दीया।खीची ने अपनी मृत्यु के भय से भागकर साथीण ठाकुर शक्तिदान भाटी की हवेली मे जाकर शरण मांगी ,भाटी ने उसे शरण मे रखा।
महाराजा ने बीहारीदास को वापीस सौंपने के कई संदेश भेजे परंतु शक्तिदान भाटी ने बीहारीदास को वापीस सोंपने का ईनकार कर दीया। मानसिंह ने कहा एसी हरकत कानाना ठाकुर भोमकरण ने की थी,जीसका परीणाम उसने भुक्ता,वही हस्र तुम्हारा भी होगा।शक्तिदान भाटी ने कहा भोमा तो बाई थी ,परंतु ये शक्तिदान तो भाई है अर्थात मर्द है। आपकी सेना का बडा स्वागत करुंगा।

महाराजा के लीए अब युद्ध करना अनिवार्य हो गया ।परंतु तब भी वे भाटीयो से युद्ध का बचाव चाहते थे।तभी मानसिंह ने अंतीम विकल्प चारण को चुना *चौपासनी ठाकुर कौलसिंह रत्नु* को भाटी को समझाने हेतु भेजा।

हवेली मे आगमन पर भाटी ने चारण का स्वागत कीया।कौलसिंह रत्नु ने राजा मानसिंह का क्रोधभरा संदेश कह सुनाया।युद्ध का विनाशकारी परीणाम भी बताया,और राजनैतीक द्रष्टि से समझाया।चारण की बात खत्म होते ही शक्तिदान भाटी ने कहा की "आप मुजे बताओ बाजीसा ईस समय मेरा धर्म बीहारीदास को शरण देना है या उनको छोडना ?"
 कौलसिंह चारण ने कहा "आपका धर्म शर्णागत की रक्षा करना है, परंतु मे तो ईसलीए केह रहा हु की ईस युद्ध मे आपकी ही हानी होगी"
भाटी ने कहा "हानी तो क्या मे धर्म रक्षार्थ प्राणोत्सर्ग के लीए भी तैयार हु"
ठाकुर कौलसिंह रतनु ने महाराजा मानसिंह को कहा था की मे कुछ भी कर के भाटी को समझा कर ही आउंगा
तब उन्होने कहा वापीस लौटकर राजा को कहने के लीये मेरे पास कोई शब्द नही है,ईसलीए मै भी अब आपके साथ रहुंगा ।

हवेली का दरवाजा बंद कर दीया गया चाबीया चारण कौलसिंह को दी गई।

*गढपति के लीए यह समय बडा विकट और दुरघर्ष पूर्ण होता है गढ ,महेल या हवेली (राजनीवास) के रनीवास की सुरक्षा व संरक्षण का संपूर्ण दायीत्व रहता है।*
*चारण के 'गढपति' महत्वपूर्ण पद के लिए शूरविर, धीर राजनीतीग्न,दुरदृष्टा,विवेकी,तीव्र निर्णय शक्ति,राजघराने के साथ अटूट श्रध्धा,विश्वास व रण कौशल्य आदी गुण चारण मे होने आवश्यक होते थे।चारण को सदैव राज्य की* *सामाजीक,राजनैतीक,आर्थीक व आन्तरिक मामलो की पूर्ण जानकारी रहती है।शासक अपनी गुप्त बाते सबसे गुप्त रख शकता था लेकीन गोपनीय से गोपनीय बात के लीये भी चारण से कोई पर्दा न था।*
आलीशान हवेली की चाबीया कौलसिंह के हाथ मे थमाकर शक्तिदान भाटी ने कहा, धर्म रक्षा का समय आ गया है बाजीसा  अब ये हवेली का दायीत्व आपका ,ये हवेली आपकी हुई और सेना से कहा सैनीको केशरीया धारण करो ,हमे विजय नही अमरत्व चाहीए।

ठाकुर कौलसिंह रतनु केशरीया धारण कर हाथ मे दो धारी तलवार लेकर कभी हवेली के बुर्जो पर जाते तो कभी नीचे मेदान मे आते वे भुखे शेर की तरह ईधर से उधर घूम रहे थे।

जोधपूर की सेना ने हवेली पर धावा बोला। सेना ने हवेली को चारो और से घेर दीया।तोपो और बंदुको की गर्जना से शहर थर्रा गया। पास पडोस वाले आवास छोड कर सुरक्षीत जगाह पर भाग खडे हुए। हवेली के मुख्य द्वार पर तोप लगा दी गई और हवेली का दरवाजा तोडने को तोप के गोले गरज उठे। दरवाजे के चीथडे उडने वाले थे,परंतु हवेली का दरवाजा कौन खोले ?हवेली अब कौलसिंह रतनु की थी। भाटी सेना मुकाबला करने मे कमजोर पड रही थी और दरवाजा टुटने का भी खतरा था। स्थिती को भली भाँती देखकर कौलसिंह जी चारण ने जय माताजी ,जय भवानी केह कर हवेली का दरवाजा खोला। तोप का पहला गोला कौलसिंह  की जंघा पर लगा। उनका पैर एक तरफ और कौलसिंह दुसरी तरफ!!! यह होता है चारण के गढपती (गढविर) पद का कार्य।चलती हुई मौत को अपने गले लगाने का धर्म। चारण सदैव तलवारो के बीच रहेते थे और तलवारे से कटकर विरगति पाते थे।ईस युद्ध मे सर्व प्रथम ठाकुर कौलसिंह जी रत्नु विरगती प्राप्त हुए।

संदर्भ:-
*चारण दीगदर्शन*
*बांकीदास री ख्यात*

*जयपालसिंह (जीगर बन्ना) थेरासणा*

*नोंध:-ईस पोस्ट को अधीक से अधीक शेर करे परंतु मेरे नाम के साथ छेडछाड ना करे।*

महाराणा प्रताप और चारण

जय मेवाड़🚩
जय महाराणा प्रताप🚩

*महाराणा प्रताप के सााथ उनके सहयोगी विर बलिदानी जेसा सौदा,केशव सौदा, रामा सांदू, गोरधन बोग्सा, सुरायची टापरिया का पूण्य स्मरण

प्रातः स्मरणीय *हिंदुआं सुरज* महाराणा प्रताप की जयंती पर जन जन के ह्रदय से निकलती अथाह प्रेम भावना  प्रकट होना संकेत है कि जनमानस आज भी अपने लोकनायक के प्रति नतमस्तक है । न जाने कितने राजा महाराजा हुए मगर सिर्फ महाराणा प्रताप का जो अमिट उच्च स्थान जनमानस में स्थापित है वो अतुल्य है। जो स्वयं जंगल में दर दर की ठोकरें खा रहा हो उनके साथ  युद्ध करने से जागिर मिलना तो दूर की बात वेतन व भोजन मिलने में भी संशय था। उस वक्त अनगिनत वीरों ने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। चारण समाज के वीरों ने भी हंसते हंसते अपने महाराणा के लिए अपनी जान मात्रभूमि के लिए समर्पित कर दी उनमें *जैसाजी सौदा केशव सौदा ,रामा सांदू , गोरधन बोग्सा,सुरायची टापरिया* प्रमुख थे।
 अपनी आन बान और शान के साथ मेवाड़ के स्वाभिमान को अक्षुण रखने वाले महाराणा प्रताप की अनन्य अनुपम संघर्ष गाथा व बलिदान को दुश्मन भी नम आंखों से स्मरण किए बिना नहीं रह सका ।
तत्कालीन समय में गांव गांव ढाणी ढाणी तक महाराणा प्रताप के स्वाभिमान संघर्ष को  पहुंचाया उस समय के कवि *दुरसा‌आढा* ने ।
भरे दरबार में महाराणा प्रताप की वीरता के वर्णन से  कवि ने अकबर को भी विचलित कर दिया था।

{अस लेगो अण दाग, पाग लेगो अण नामी।
गो आड़ा गवड़ाय, जिको बहतो धुर बामी।
नवरोजे नह गयो, न गो आतशा नवल्ली।
न गो झरोखा हेठ,  जेथ दुनियाण दहल्ली।

गहलोत राण जीतो गयो, दसण मूँद रसना डसी।
नीसास मूक भरिया नयण, तो मृत शाह प्रतापसी।

महाराणा ने अपने घोडों पर दाग नही लगने दिया (बादशाह की अधीनता स्वीकार करने वालों के घोडों को दागा जाता था)। उसकी पगड़ी किसी के सामने झुकी नही (अण नमी पाघ ) जो स्वाधीनता की गाड़ी की बाएँ धुरी को संभाले हुए था वो अपनी जीत के गीत गवा के चला गया। (गो आड़ा गवड़ाय ) (बहतो धुर बामी, यह मुहावरा है।  गीता में अर्जुन को कृष्ण कहते है कि, हे! अर्जुन तुम महाभारत के वर्षभ हो यानि इस युद्ध की गाड़ी को खींचने का भार तुम्हारे ऊपर ही है। )

तुम कभी नोरोजे के जलसे में नही गये, न बादशाह के डेरों में गए। (आतशाँ -डेरे) न बादशाह के झरोखे के नीचे जहाँ दुनिया दहलती थी। (अकबर झरोखे में बैठता था तथा उसके नीचे राजा व नवाब आकर कोर्निश करते थे। )
हे! प्रतापसी तुम्हारी मृत्यु पर बादशाह ने आँखे बंद कर (दसण मूँद ) जबान को दांतों तले दबा लिया, ठंडी सांस ली, आँखों में पानी भर आया और कहा गहलोत राणा जीत गया। ( प्रेषक- गणपत सिंह चारण)}

लगभग पांच सो साल पूर्व कवि दुरसा आढ़ा ने महाराणा प्रताप को राष्ट्र का गौरव व स्वतंत्रता का नायक‌ बताते हुए महाराणा प्रताप पर अमर रचनाएं बना कर उन्हें जन-जन के ह्रदय में सदा सर्वदा के लिए स्थापित कर दिया ।
पिछले कई दशकों से सर्वत्र महाराणा प्रताप जयंती मनाई जा रही है , हमें भी इस प्रथम स्वतंत्रता सेनानी की जयंती मनाकर अपना योगदान देने वाले वीरों को स्मरण करना चाहिए । ताकि जिन्हें इतिहास ने भूला दिया मगर हम उन्हें पुनः स्मरण कर इतिहास में वापस स्वर्ण अक्षरों में अंकित कर सकें।

बुधवार, 7 मार्च 2018

चारणी साहीत्य गुजराती मे विध्वान कवि यो की प्रसिध्ध रचनाए


(1)ચારણી ડિંગળ ભાષામા ઘોડાનુ વર્ણન

             [ગીત-સપાખરુ]

છુટા ગ્રાહબે વોમ બછુટા રોકતા ધરાકા છેડા:
ઉઠાહબે પાગામહિ શોભતા અથોગ:
આહબે નાખતા પાગા નટવ્વા અમોઘ. 1

ડાબલા માંડતાં ધરા ધમંકે સાબધી દણી.
ઞમંકે સાજહીં કોટે રંભરા ઝકોળ:
ચમકે વાહસે જાણી વીજળી જાલદા ચળી.
ભ્રમવાળા ભારે ઠાળા ગતી વાળા મોર.2

વાંભશી સાંકળાવાળા ટાક કનસોરી વંદા.
કુરંગાં આંખડીવાળા મૂલરા કરોણ:
ભાલાવાળા લટાં કેશ ફોરણાં ઉલંધી ભજે.
જટાળા જોગંદ્ર નહી પટાળાકી જોડ.3

છાછરા ભાલરા છાતીયા ઢાલરા સમા
સોડા ત્રીંગ બાજોઠરા ખાળીઅા સઢાળ:
સાકાબંધી તાંસળીરા ઔપતા ડાબલા ચોડા.
ઠંમંકતા ઘોડા નાડા તોડ સાંધે ઠાળ. 4


(2) મર્દ કેવો હોય ?

 પ્રોણા પાવાનું ગુણ ગાવાનું, ખવરાવાનુ ખાવાનું,
 ઘોડે ચડવાનું મૂછે તાનું, ઘવરાવાનુ ઘાવાનું,
 કૃત શૂરવિરતાનું પ્રભુ કૃપાનું, વીર થવાનુ મહારથી,
 વિત્ત વાવરવાનું રણ ચડવાનું નામરદાનું કામ નથી.. ૧…

 કર ધરી તલવારં, કમર કટારં, ધનુકર ધારં ટંકાર,
 બંદૂક બહારં, મારં મારં હાહાકારં હોકારં,
 નર કઇ નાદારં, કરત પુકારં, મુખ ઉચારં રામ નથી,
 વિત્ત વાવરવાનું રણ ચડવાનું નામરદાનું કામ નથી.. ૨

 દુષ્કાળ ડરાવે ફાળ પડાવે, મેહ ન આવે મુરજાવે,
 એ વખતે આવે ગુનિગુન ગાવે બહુ રિઝાવે બિરદાવે,
 દાતાર નિભાવે, પંડ દુઃખ પાવે, ના મુખ આવે દામ નથી,
 વિત્ત વાવરવાનું રણ ચડવાનું નામરદાનું કામ નથી.. ૩

 ઉદ્વત નર એવા, કરે ન સેવા હલકા હેવા જડ જેવા,
 જનમે દુઃખ દેવા લાભ ન લેવા, મળે ન મેવા માગેવા,
 કહે પિંગલ એવા પાપ કરેવા અંત મરેવા ખૂબ મથી,
 વિત્ત વાવરવાનું રણ ચડવાનું નામરદાનું કામ નથી.. ૪

सोमवार, 19 फ़रवरी 2018

दान शब्द की समज

🔴 *चारणो मे "दान"शब्द की समज*

चारण जाती मे व्यापकता से दैव प्रसाद के रूप मे पुत्र का नामकरण देव अथवा देवी के रूप मे करते है -हींगलाज,करऩी,आवड,शक्ति,देवी,पाबु,चालक,बांकल,खूबड आदी। साथ ही ईष्टदेव/देवी की उपासना से जन्मा पुत्र का नाम उन देव/देवी पर रखा जाता था परंतु जब उसके द्वारा दिया गया है ईस शब्द का प्रयोग व अभीप्राय नित्तान्त स्पष्ट करना आवश्यक था। ईस लीए एसे नामो के अंत मे 'दान' शब्द लगाना अनिवार्य था।

दान शब्द का प्रयोग राजपूत,जैन आदी भी करते आए है। (ईसके बहोत से ईतीहास संबधीत उदाहरण दीए जा सकते है)  ईस प्रकार दुसरी जातीयों मे देव आस्था से प्रेरित नाम के अंत मे देव/देवी द्वारा प्राप्त पुत्र को दान शब्द से बोला जाता था।
चारणो मे शक्ति की भक्ति अपनी चरमसीमा पर मुखरित रहेती है,ईस लीए उनके नाम शेंणीदान,चंडीदान,करणीदान,हींगलाजदान, ईत्यादी बहुतायत है।

नामकरण मे रुढी का प्रवाह होने पर कई चारणो ने निरर्थक नामो के साथ भी अनावश्यक रुप से 'दान' शब्द का प्रयोग आरंभ कर दीया। जो उनकी बडी भूल रही है। जैसे कालुदान,अर्जुनदान,भमरदान,तखतदान,महेन्द्रदान,जुगतीदान,बलवंतदान ईत्यादी। क्योकी ईन नामो का नामकरण किसी देव/दैवी अनुकंपा से जन्मे पुत्र का बोध नही कराता है , तब भला निरथर्क रुप से 'दान' शब्द को क्यो ठुंसा गया है ??? ईसी रुढी का यह परीणाम निकला की 'दान' शब्द का अभीप्राय शायद किसी से सदैव वस्तु दान मे लेना रहा होगा। अनभीज्ञ कुछ दुसरी जाती के लोग ईस रुढी को ईसी अर्थ मे लेते है।
  नाम के साथ ईसका कोई संबध नही रहता यदी एसा होता तो ब्राह्मण अपने नाम के अंत मे एसा क्यो नही करते?(जबकी 'दान' शब्द  17 वी सदी के बाद ही देखने को मीलता है)
एसा समजना मुर्ख लोगो की अज्ञानता का दोष है।

*"दान"* शब्द का प्रयोग सिर्फ और सिर्फ देव/देवी की अनुकंपा से जन्मे पुत्र के नाम के साथ ही कीया जाना चाहीए,दुसरे नामो के साथ नही ,ये बात हर चारण जरुर समजे।

ईसी लीेए सभी चारण सिरदारो से विनंती है की पहेले हमारी परंपराओ को बराबर समजो और फीर अच्छी तरह नीभावो।

संदर्भ:-
>चारण दिगदर्शन
>राजस्थानी भाषा और साहीत्य

*जयपालसिंह(जीगर बन्ना)सिंहढायच*
*ठी.थेरासणा*


> *एक विंनती है ईस पोस्ट को ज्यादा से ज्यादा शेर करे परंतु मेरे नाम के साथ छेडछाड न करे*

मारु चारण की शाखाए

⚔ *वर्तमान में राजस्थान में बसने वाले मारू चारणो की शाखाए*⚔

1 - चांचडा
2 - झीबा
3 - जगट
4 - बोग्सा
5 - खिडिया
6 - वणसूर
7 - सामोर
8 - मूहड़
9 - आशिया
10 - लालस
11 - आढा
12 - सांदू
13 - महिया
14 - महियारिया
15 - गांगणिया
16 - सौदा
17 - मीशण
18 - गेलवा
19 - सीलगा
20 - नांदु
21 - किनिया
22 - देथा
23 - सुरतानिया
24 - भादा
25 - सिंहढायच
26 - मेहडू
27 - गाडण
28 - बाटी
29 - रतनू
30 - देवल
31 - कविया
32 - झूला
33 - वरसडा
34 - थेहड
35 - धानडा
36 - टापरिया
37 - सुंगा
38 - कुंवारिया
39 - नरा
40 - तुगंल
41 - मिकस
42-टापरीया
43 - बारहट ( रोहडिया, पालावत, अमरावत, लखावत, अखावत, बिठु, देपावत, शंकरोत, आशावत,राजसिंगोत आदी )


गणपत सिंह चारण

चारण राजपूत परंपरा श्री आवड माता

*चारण-राजपूत परंपरा*

*श्री आवड माँ*

आठवी शताब्दी मे काठीयावाड के वल्लभी पुर नगर मे सउआ शाखा के चारण मामडजी रहते थे। लौद्रवा के राजा जसभांण परमार के समकालिक बताते हुए कहा जाता है कि जसभांण मामड़जी चारण का नित्य उठ कर मुंह देखा करता था । उसे किसी ने उलाहना दिया कि जसभांण जिसका तू नित्य उठ कर मुंह देखता है वह तो निःसंतान है ! इस उलाहने से दुःखी होकर मामड़ ने हिंगलाज देवी की पैदल यात्रा सात बार का संकल्प लिया । हिंगलाज देवी ने मांमड़जी के घर शक्ति अवतार लेने का वचन दिया और ये शर्तें रखीं- कि ‘इसको किसी के आगे उजागर न करना, अपनी पत्नी को पवित्रता से रहे, खखर वृक्ष का पालना बनाये -उसे लाल रंग से रंग कर घर के ऊपर लाल ध्वजा बांध दे, प्रति दिन उठ कर सात बार नाम का स्मरण करे ।’
और चारण मामड़जी और मोहवती के घर वि.सं. 808 चैत्र शुक्ल.....मंगलवार को  देवी भगवती/हिंगलाज ने आवड़ के रूप में अवतार लिया। ये सात बहिने जो सब देवियां मानी जाती हैं।आवड बाई , जोगड बाई , तोगड बाई , होल बाई , बीज बाई , सासाई, लगु बाई ( ’खोड़ियार’ )  इन्होंने आजीवन कौमार्यव्रत धारण किया था । एक मेहरखा नामक भाई था। आवड जी सबसे बडे थे। तत्कालीन सिंध के राजा ऊमर ने इनकी सुंदरता पर मोहित होकर इनसे विवाह करने का हठ किया किन्तु इन्होंने अपने चमत्कार व कौशल से उसे मार कर वहां भाटी वंश के क्षत्रियों का राज्य जैसलमेर(माड प्रदेश) स्थापित कर दिया । अतः *ये भाटी वंश की कुलदेवी है ।*इनके विषय में अनेक किवदंतियां व चमत्कार प्रसिद्ध है ।

 परमार-क्षत्रीय ऊमर सूमरा, जो कि सूमरों का अंतिम शासक था, इस्लाम धर्म में दीक्षित हो चुका था, को मारा। इसके अतिरिक्त सतलुज नदी की एक शाखा जो राजपुताने में ‘मीठा महरांण’ कहलाती थी को तीन चल्लू में पी डाला और वह मीठे पानी का समुद्र कहा जाने वाला ‘हाकड़ा’ मरूभूमि में परिवर्तित हो गया ।

-आवड़माता के विभिन्न रूपों में आशापुरा,स्वांगीयाजी,  बीजासण, तेमड़ाराय, गिरवरराय,चाळाराय, डूगरेच्यां, अर्बुदा,नागणेच्याआदि उनके 52 अवतार है।आवडजी और ईनके 52 अवतार  चारण,राजपूत, और भी बहोत सी जातीओ की कुलदेवी है ।

  ’आवड’ जी ने हाकड़ा नामक समुद्र का शोषण कियाथा । ’आवड’ जी ने हूण सेना नायक तेमड़ा नामक राक्षस को मारा था जिसके कारण ’तेमडेराय’ कहलाई , महाराजा तणु को तनोट स्थान पर दर्शन देकर ’तनोटराय’ कहलाई। घंटियाल नामक राक्षस को मारकर ’घंटियालराय’ कहलाई ,भादरिया नामक भाटी के आग्रह पर दर्शन देने पधारी इसलिए ’भादरियाराय’ कहलाई ,काले डूंगर पर बिराजने से ’कालेडूंगरराय’ कहलाई ,पन्ना मुसलमान की रक्षा करके ’पन्नोधरिराय’ कहलाई ,एक असुर रूपेण भेंसे को मारकर माँ ने उसे देग नामक बर्तन में पकाया था, इसलिए ’देगराय’ कहलाई। आवड जी सहित सातों बहनों के नदी में नहाते वक्त यवन राजकुमार नुरन द्वारा कपड़ो को छूने के कारण माँ आवड नागण का रूप धारण कर घर लौटी थी इसलिए ’नागणेची/नागणेच्या’ कहलाई ! राजस्थान में सुगन चिड़ी को ’आवड’ माँ का रूप माना जाता है !
 ’आवड’ जी इस पृथ्वी पर सशरीर 191 साल बिराजे थे ।

*जीगर बन्ना थेरासणा*

शुक्रवार, 16 फ़रवरी 2018

ठा.सा.नाथुसिंह जी महीयारीया

*श्री कृष्णपाल सिंह जी चहुंआण “राखी” का कविवर ठाकुर नाथूसिंहजी महियारिया(चारण) पर आलेख*

वीरत्व रै औजस्वी  कविवर ठाकुर साहब नाथूसिंह महियारिया रो नांव सुमरण करतां ई पारम्परिक वेशभूषा री ठठक में सजियोड़ी हेक ऐहडी भव्य अर विराट सख्सियत आंख्यां रै सामै उजागर हुय जावै है जिकै जीवण पर्यन्त मेवाड़ री अणमोल क्षात्र-संस्कृति नै आस्था अर गरब सूं जीवी है। वास्तव में वै क्षात्र -संस्कृति रा उद्घोषक, संवाहक अर प्रतिष्ठापक हां।

ठाकुर साहब नाथूसिंह चारण जाति री महियारिया खांप रा लाडेसर हा। महियारिया उपजाति रो आद-पुरस् मांडणजी गुजरात छोड़ मेवाड़ में आय बसग्या हा। मेवाड़ रै महाराणा उवां नै महियारी गाँव री जागीरी बख्सीस में दी ही। केसरिया मांडणजी तद् सूं महियारिया बणग्या। उणरी बाइसवीं पीढ़ी में वेलाजी विया। वेलाजी री सुन्दरबाई महियारिया री कुलदेवी रै रूप में पुजीजै।

महियारिया कुळ में घणा ई जोधा अर कवि जलम्या हां, जिकां तलवार अर कलम रै बळबुते खुद आपरौ इतिहास बणायौ है। मांडण कुळ भासकर देवीदास महियारिया पांच लाखपचाव दे’र “जग दातार” रो खिताब पायो हो। कविवर नाथूसिंह रा परदादा किसनदास, उदयपुर रै प्रसिद्ध जगदीस मिंदर नै जोयडा गांव समरपित कियो हो अर लालघाट माथै चारभुजा जी रो हेक मिंदर पण बणवायो हो। दादाजी जसकरण भी घणो जस कमायो। जसजी रै तीन बेटा में पूछेट हो ठाकुर केसरीसिंह, ठाकुर नाथूसिंह ईण ठाकुर केसरीसिंह रै घरां जलम लीधो हो।

ऩाथुसिंह जी रा पिताश्री पण ड़िंगळ रा नामी-गिरामी कवि हां। ईण तरां कवि री वंश -परम्परा घणी उजळी रैयी है।

ठाकुर नाथूसिंह महियारिया रो जलम सवंत 1948 वि. में भाद्रपद री क्रस्णां-आठम नै रोहिणी नखत में सुबै आठ बज्यां हुयौ हो। उण री माँ रामकंवर बाई, इतिहास प्रसिद्ध कवि दुरसा आढ़ा रै वंशज ठाकुर चमनसिंह (साया रौ खेड़ो) री धिया ही। कवि रै जलम रो नांव विजयसिंह हो, पण उण रा पिताजी उण नै नाथूसिंह नांव दियो हो। कवि जद फगत नो बरस रो हो तद् उण रा पिताजी रो देहांत हुग्यो हो। मां रो सरगवास होयो जद कवि तेरै बरस रो ई हो।

ठाकुर साहब री अल्पायु में ई पिता रो सायो उठ जावण सूं उण रो लालण पालण मातुश्री री देख रेख में ई वियो हो। पिताजी रै जीते थके वो फगत तीजी धोरण ताई भणिज पायो। पिताजी री मौत रै पछै माँ उण नै ले’र बांदरवाडा गाम में आयगी ही। गांव में भणाई री काई वैवस्था कोनी ही, जिण सूं आगै नेम सूं भणाई कोनी हुय सकी। पण ज्ञान रै सारूं अध्य्यन री काई खास जरुरत कोनी हुया करै। कवि री आंख्यां अर दिमाग हरमेस खुला रैवता अर उण रै माध्यम सूं वो भरपूर ज्ञान हासळ करयौ हो। ओ सच है की काव्य शास्त्र रो विधिसर अध्य्यन, मनन अर अभ्यास कोनी करयौ, पण आपरी विलक्षण ईच्छा सगति सूं जुनां गीतां, दूहा आदि रै माध्यम सूं सिरजण-कला सीख लीधी ही अर उण रै मुताबिक काव्य रचना सरू कर दीधी ही। उण री लय अर गति कवि रै मानस में हेक संस्कार रै रूप में अंकित हुयगी ही। छंद हाफैई लय रै आधार माथै बण जाता। आ ई ही उण री शिक्षा अर आ ई ही उण री दीक्षा।

ठाकुर नाथुसिंह रै समै बाळ-ब्याव री प्रथा हुवण सूं उण रौ ब्याव पण अल्पायु में ई सवंत 1957 में चैत वदी दूज नै जीतावास रै ठाकुर दलेलसिंह आशिया री बेटी फूलकंवर बाई रै सागै वियो हो। कवि रो दूजो ब्याव कड़िया गाँव रै ठाकुर रामसिंह री बेटी दाखकंवर बाई सूं वियो हो, पण उण रो बेगोई देहांत हुग्यो हो। ठाकुर साहब रै तीन बेटा अर हेक बेटी हुई, मोहन सिंह, प्रताप सिंह, महताब सिंह अर सुभाग बाई। कवि रै जीवण काळ में ई मोबी पूत मोहनसिंह अर बेटी रो सुरगवास हुयग्यो हो। पुत्र मोहन सिंह राजस्थान सरकार में प्रशासनिक अधिकारी हा अर उवां कवि री “वीर सतसई” रै सम्पादन में मबताऊ सैयोग करयो हो। कवि री धर्म पत्नी रो अचाणचक सन् 1955 ई में देहांत हुवण सूं कवि-हिरदै माथे भारी आघात लागो हो, उवां आपरी काव्य- कृति “हाड़ी शतक” पत्नी नै समरपित कर उण नै काव्यजंलि प्रदान करी हीं।

ठाकुर साहब ने काव्य सिरजण री पैली सीख उण रै पिताश्री सूं मिली ही, इण कारण कवि आपरो प्रथम गुरु उणां नै ई मानतो हो। कवि रै पत्रा -पानडां में हेक दूहो लाधो हो —

शिशुपण महीं सिखवियो, बणै दूहा विख्यात।
कुंकर हूं उरण कहो, तो सूं केहर तात।।

करजाली (मेवाड़) महाराज लक्ष्मण सिंह रा लघु भ्राता राजऋषि महाराज चतुर सिंह बावजी, कवि उण रै प्रति कृतज्ञता रा भाव कई ठौर परगट करया है। बावजी रो बैकुंठ वास हुयौ जद कवि उणां री प्रशस्ति में अनेक दूहा-गीत लिख गुरु नै सिरधा – सुमन अरपित किया हां। बानगी है–

हे चातुर आतुर हुयो, थूं हर भगत अथग्ग।
नहं जातो आतो निहच, सामो आप सुरग्ग।।

भारत रा पूर्व राष्टपति राजेंद्र प्रसाद जद उदैपुर पधारयां हां तो हल्दीघाटी रै चेतक चबूतरे माथै ठाकुर साहब उणां नै “वीर सतसई” रा कई खास खास दूहा सुणायां हां। काव़्य-पाठ सुण’र इत्ता प्रभावित विया हा कै उवां फेरु ड़िंगळ कविता श्रवण सारूं कवि नै राष्टपति भवन आवण रो मान भरियो न्युतो दिया हो। नाथुसिंह ईण छिणां नै पण आपरी लूंठी उपलब्धि मानता हां।
कवि रो खास दूहो-

हसती हौदै देखियां, तोरण चंवर ढुलन्त।
सोहै उण बिच सौगुणा, रण कट पड़ियां कंत।।

नाथुसिंह  महियारिया बोत निडर हा अर खरी खरी सुणावण में वै कदै ई नीं चूकता। उण रै हेक दुहे सूं देवगढ़ रावजी रो मदिरा पान छुड़ा दियो–

थां कतरा त्यागी हुवा, तज दीधो थां राज।
आओ चुंडा देखवा, (ई) दारू तजै न आज।।

कवि फगत आपरै काव्य में ई कायरां नै प्रताड़ित कोनी किया, बल्कि बौवार में पण इस्यो कर बतायो है। कवि री कथनी अर करणी में कोई भेद कोनी हो। रियासत विलीनीकरण रै दिनां में कवि सगळा राजावां नै चूड़ियाँ अर चुटणीं रो हेक-हेक दूहो मेल्यो हो। बानगी रूप में बूंदी नरेश री चुटणीं अठै प्रस्तुत है—

हाडो तो तिल-तिल हुवो, नकली बूंदी काज।
हिक चीरो खायां बिना, दीनी असली आज।।

कविवर महियारिया देवी करणी रा सुरसती रा उपासक हां “करणी शतक” उण री देवी भगति रो ई प्रतीक है। कवि आपरै गले में करणी जी रो सोनलियो “नावां ” सदीव धारण किया रेता। जद काव्य पाठ रै दौरान किणी दूहै के छंद री लोग बाग़ सरावणां करता के दाद देता अथवा वाह वाही करता तो वै झठ सूं “नावां” नै बारै निकाल आंख्यां सूं परस कराता। आणद रै छिणां में कवि कदै कदै कहया करता —

अन धन दिनों मोकळो, दीनो जस परिवार।
मरणो मनचायो दहै, तो करता बळिहार।।

कवि री सगळी इच्छावां भगवान् पूरी करी ही, पण मनवांछित मौत वाळी साध पूरी कोनी हुई। वै ऐहड़े सुख-सम्रद्धि वाळै वातावरण में आपरै हरिये-भरिये परवार रै बीच शांति सूं मरणो चावता। पण मनचायो मरणो उवां नै नसीब कोनी वियो। कवि रा लारला किंक बरस काफी कस्टां में बित्यां हां। उण नै उपेक्षित अर हेकलु जीवण जिवणो पड्यो। लोगां कवि नै आपरी हवेली में टुट्योडे मूढै माथै हैकळो बैठो आंसू ढळकावतो देख्यो हो। ओजस्वी कवि सचमुच दया रो पात्र लागवां लागो हो। बूढ़ापै में धरम-पत्नी री याद में अक्सर रोवता रैता।

विधना ऐहडी खोटी करी कै कालांतर में उण री प्रिय हवेली हाटां बिकगी। उण रै सुखी जीवण माथै दुखां री गैरी काळख पुतगी। घर में तंगी, पण माठै कवि आपरी हटक कोनी छोडी। लारलै दिनां घणी मुसकळ सूं वै आपरै बेटै सागै रैवणो सरूं कियो हो। छेवट उठै ई सन 1973 ई में कवि री ठाठदार जीवण-जात्रा रो अंत वियो हो अर वै अणत जातरां रा मारगु बणग्या हा। लोग बतावैं है कै ड़िंगळ रै इण महान कवि री छैली जातरां में इण्या-गिन्यां लोग ई सामल विया हा। नी सोग-सभावां अर नी सिरधा-सुमन रो अरपण। हेक महान युगचारण् कवि रो इस्यो करुणामय अंत निस्चै ई सामाजिक-सोच री खोखळ नै उजागर करै है।

ठाकुर नाथुसिंह जी री काव्य-कृतियां
1. वीर सतसई
2. हाड़ी शतक
3. झालामान शतक
4. गांधी शतक
5. करणी शतक
6. कश्मीर शतक
7. बा-बापू अर फुटकर रचनावां…

ठाकुर नाथुसिंह रो “हाड़ी शतक” हेक प्रंससापरक काव्य-कृति जरूर है, पण ईण में भी वीरत्व री स्तुति ई कवि रो अभीष्ट है।

“हाड़ी शतक” रो कथानक मेवाड़ री हेक लोक-चावी गाथा माथै आधारित है। सलूम्बर रो चुण्डावत सरदार जिण दिन हाड़ी राणी नै परणीज घरां आ वै है, उणिज दिन महाराणा रो जुद्ध-नुंतों उण नै मिळे है। ब्याव रा कंकण खुलण सूं पैलां ई उण नै जुद्ध में जावणो पड़ै है। रणखेत री दिस बईर हुवण री वेळा चुण्डावत रावत नवी-नवेळी दुलहन रै मोहवश आपरै सेवक नै हाड़ी राणी खनेँ भेज्यौ अर उण सूं प्रेम-निसाँणी लावण रो कहयो। वीरत्व री देवी हाड़ी राणी तत्काल ताड़ लियौ के रावत रो मन आपरी गोरड़ी री प्रित में सागिडो उलझयोडो लखावै है। उवै सोच्यो कै जे प्रीतम री मोह-डोर उण सूं यूई बन्धयोडी रैवैला तो वो आपरौ करतव निच्सै ई निभा कोनी सकै। जे ऐहडो वेग्यौ तो अनरथ हुय जावैला। धणी नै निसाणी तो भिज्वावणी ही, सेवक उडिकतो उभौ हो। हाड़ी राणी हेक छिण में निरणय लियो अर तलवार रै हेक झटकै सूं आपरौ माथौ बाढ़ उण नै थाळ में सजाय चूंडावत सरदार नै भेज दियो। ईण अनूठी अर विचित्र निसाँणी नै लखताई रावत उण रै मांयलो गूढार्थ समझ ऐकर तो अपराध-बोध अर सरम सूं घणो विकल वियो, पण दूजै ई छिण वो दुनै उच्छाव सूं बईर हुयग्यो। रणभूमि में पराक्रम रा अचरजकारी चमत्कार दिखाया अर छेवत वीरगत नै प्राप्त वियो।

ठाकुर साहब री नजर में हाड़ी-राणी रो अमर त्याग, लौकिक-अलौकिक सगळा त्यागां सूं घणो डिघो है। सहनाणी सीताजी ई भिजवाई ही अर हाड़ी राणी भी, पण दोनूं में श्रेष्टतर तो हाड़ी राणी रीज है–

हाड़ी सहनांणी मंही, सिर मेल्यो जिण वार।
चूड़ामणि सीता तणी, वारूं बार हजार।।

इतरो ई क्यूं, जगत-जननी पारवती नै पण हाड़ी राणी रै मरणोपरांत सुख-सुभाग रै आगळ कैलास रा सरगाउ ठाट-बाट फीका लागै है 

चारण राजपूत परंपरा

*चारण राजपूत परंपरा*

चारणो के बारे में जोधपुर(मारवाड) महाराजा मानसिंह जी चारण राजपूत सबंध के वीषय मे लीखते है-

          ।।दोहा।।
*चारण,भाई छत्रियां।जां घर खाग तियाग।।*
*खागों तीखी बायरा। ज्यां सू लाग न भाग।।*
     
          ।।छप्पय।।
*जीण पृथ्वी मे गंध। पवन मे जे सुपरसण।*
*सीतळ रस,जळ साथ।अगन मांही ज्यूं उसण।।*
*शून्य मांही ज्यां सबद। सबद मे अर्थ हलेस्वर।*
*पिंड मांही ज्या प्राण।प्रांण में ज्यां परमेश्वर।।*
*रग-रग ही रगत छायौ रहै। देह विषय ज्यां डारणां।*
*क्षत्रियां साथ नातौ छतौ। चोळी दांमण चारणां।।*

अर्थ :- "जीस प्रकार पृथ्वी के साथ सुगंध,पवन के साथ स्पर्श का ग्यान,पानी के साथ रस की शीतलता जैसे अग्नी के साथ उष्णता,शून्य मे विलीन शब्द ध्वनी,जैसे शब्द के साथ उसमे अर्थ बोध पिण्ड में जैसे प्राण है और प्राण के साथ परमेश्वर । जीस प्रकार सम्पूर्ण शरीर के साथ रक्त का सम्बन्ध है।उसी प्रकार राजपूतो के साथ चारणो का चोली दामन का तदात्म्य सम्बन्ध है।"

*जयपालसिंह (जीगर बन्ना) थेरासणा*

सोमवार, 1 जनवरी 2018

चारण - राजपूत परंपरा

*चारण-राजपूत परंपरा*

माँ शक्ति बीरवडी/वरवडी/वरुडी माता

आपसी फुट और मुस्लीम आक्रान्तकारो से पराजीत होकर और मेवाड मुस्लीमो के हाथ मे आ जाने से हम्मीर द्वारीका की तरफ जा रहे थे। रास्ते मे खौड ग्राम मे वरवडी जी के चमत्कारो की चर्चा  सुनकर वे ईनके द्वार पर आये और धर्म रक्षा की याचना की। शक्ति बरवडी जी ने राणा हम्मीर को मेवाड राज्य पुनःप्राप्त होने का आशीर्वाद दीया तथा अपने पुत्र बारु को 500 घोडो सहीत सेना तैयार कर के मेवाड हासील करने भेजा।

उस प्रसंग का एक डींगल गीत है-

*यळा चीतोडा सहे घर आसी। हु थारा दोखीयो हरु।।*
*जणणी ईसी कहु नह जायौ।कहवै देवी धीज करु।।१।।*
*रावल बापा जीसौ रायगुर।रीझ -खीज सुरपत री रुंस।।*
*दस सहंसा जैहो नह दूजौ। सकती करेै गळा रा सूंस।।२।।*
*मन साचै भाखै महमाय। रसणा सहती बात रसाळ।।*
*सरज्यो व्है अडसी सुत सरखो। पकडे लाऊँ नाग पयाळ।।३।।*
*आलम-कलम नवेखंड एळा। कैलपुरा री मींढ किसौ।।*
*देवी कहै सुण्यौ नह दुजौ । अवर ठीकांणे भूप ईसौ।।४।।*


>हम्मीर ,बारुजी को लेकर वापीस आया और युद्ध कर वीजय प्राप्त की। वीजय प्राप्त होने पर ईसकी कृतग्नता मे महाराणा हम्मीर ने बारु का भारी स्वागत कीया।
बारह गांव की जागीर प्रदान की,बैठक की ताजीम,अतुल्य स्वर्ण  जवेरात,सात हाथी और 500 घोडे भेंट कीये।
हम्मीर ने बारु सौदा के पैरो का पूजन कीया। अपने राज्य का गढपती - दसोंदी बनाया । राणा हम्मीर बारुजी को अपना बडा भाई मानते थे ।
हमीर ने अपने वंशजो को शपथ दीलाकर कहा की ईस बारु सौदा के वंशजो से सीसोदीया कभी भी वीमुख नही होंगे।
यह राज्य मेने ईनकी कृपा से प्राप्त कीया है।

ईस प्रसंग का एक डींगल गीत उल्लेखनीय है-

*बैठक ताजीम गांम गज बगसे। कव रो मोटो तोल कीयो।।*
*वडदातार हेम बारु ने। दे ईतरो पद गढपती दीयौ।।१।।*
*पौल प्रवाह करे पग पुजन। वडा आवास छोळ द्रग वेग।।*
*सिंधुर सात दोय दस सांसण । नागद्रहै दीधा ईम नेग।।२।।*
*सहंसदोय महीखी अन सुरभी।कंचन करहा भरी कतार ।*
*रीझे दीयां पांच सौ रैवत । अधपत झोका दातार।।३।।*
*कोड पसाव पेखजग कहीयौ। अधपत यों दाखे नीज ओद।।*
*श्रीमुख शपथ करे अडसी सुत। सौदा नह वरचै सीसोद।।४।।*

मेवाड के सीसोदीया ओ की आराध्य देवी मा बरवडी जी है । राणा ने  बरवडी जी को चीत्तोड आने का बुलावा भेजा। मां चीत्तोड पधारे। राणा जीने बडे मानसन्मान के साथ उनकी बहोत सेवा की, और राणा हमीर ने चीतौड मे मां शक्ती वरुडी की दया व कृपा की स्मृती मे भव्य मंदीर बनवाया,जो अन्नपूर्णा के नाम से प्रसीद्ध है।
ईन्ही बारु जी सौदा के वशंज सौदा बारहठ कहलाते है।

*जीगर बन्ना थेरासणा*

देवजाती /देववंशी चारण

🔴 *देववंशी/देवजाती- चारण*


>कलम व तलवार की धनी चारण जाति ने अपनी साहित्हिक प्रतिभा व संगठनात्मक शक्तियों का संयोजन स्वतंत्रता समर में भाग लेकर किया। चारण जाति की उत्पति दैवी से हुई है, वह खुद भारत वर्ष मे शासक(जागीरदार) जाती थी, चारण जाती  बडे बडे शासको की सहयोगी बनकर,अधिक रस लेकर उनकी सहायता करती थी।

>राजपूत राज्यो में चारणों का स्थान बड़ा उच्च था, चारण ही इतिहासकार,
कुशलयोद्धा, राजकवि व मंत्री हुआ करते थे ।

>भागवत में नारद को ब्रह्मा ने जो सृष्टिक्रम बतलाया उसमें चारणों का उल्लेख मिलता है, यहा नारद, ब्रह्मा, शिव, राक्षस, सूतगण, देवता, असुर, चारण, खग, मृग, सर्प, गंधर्व, उरग, पशु, पित्तर, सिद्ध, विद्धाधर, वृक्षादि की गणना की गई है
इससे स्पष्ट होता है कि चारण मानवेतर सृष्टि माने गये है, यह जाति किसी समय स्वर्ग में रहती थी, और देव स्वर्ग में भी इनका समावेश था।

> *चारण के देवजाती होने के सेंकडो प्रमाण है जो नीम्न है:-*

: देवसर्ग के विभाग और स्वरुप:
हीम वर्ष के सम्पूर्ण स्वर्ग मे देव जाती के लोग रहा करते थे जो आठ सर्गो मे विभक्त थे।ईस सर्गो मे किसी  मे एक,किसी में दो और किसी में तिन जाति समूह है। ईस प्रकार से आठ सर्गो की कुल 14 देवजातीयाँ वहाँ निवास करती थी। देव जाति के ईन सर्गो के बारे में श्रीमदभागवत पुराण के तृतीय स्कंद के दसवें अध्याय मे लिखा है-

देवसर्गश्चाष्टविधो  विबुधा पितरोसुराः।
गन्धर्वाप्सरस सिद्ध यक्ष रक्षांसि चारणाः।।२७।।
भूत,प्रेता,पिशाचाश्य विध्याध्रा किन्नरादयाः।
दशैत विदुराख्याताः सर्गास्ते विश्वसृक्कृताः।।२८।।

देवताओ के ८ जाती सर्ग है-
१. बीबुध,२.पितर,३.असुर,५गंधर्व,अप्सरा(ईन दोनो का एक सर्ग),५.यक्ष,राक्षस(ईनदोनो का एक सर्ग),६.भूत,प्रेत,पीशाच(ईन तीनो का एक सर्ग),७.सिद्ध,चारण,विध्याधर(ईन तीनो का एक सर्ग),८.किन्नर ।
वरुण अथवा ब्रह्मा ने जीन दो अथवा तीन को साथ मे स्थान दिया है,उनका एक सर्ग अर्थात् समूह माना है।

>चारण की उत्तपति और वीकास के बारे मे वेद और पुराणो की गुंज ईसके अति प्राचीन होने की साक्षी देते है।फलत:यह बात स्वतः प्रमाणीत है कि ईस जाती का प्रादुभार्व एक एसे समय मे हो चुका था जब वर्ण व्यवस्था का नामोनिशान तक नही था।
यह जाती दक्ष पुत्री व शिव की सन्तान है। सति व शिव  के ये सरंक्षण मो वेदो की रुचाएँ रचने के कारण चारण रुषी कहलाते थे। सति के 52 पुत्र(गण)जो दक्ष यग्य मे सति की सुरक्षा मे साथ थे। सति के यग्य कुण्ड मे कुदकर स्वयं को जला देने पर ईन गणो (चारणो) ने दक्ष का वध कर अप्रतिम शौर्य का परीचय दीया। जीस पर उपस्थित देव दानव आदी ने ईनको विर पद से विभूषित किया तब से विर कहलाये ।

> वनपर्व 441 श्रीमद् भागवत में चारण जाति का आठ प्रकार के देवसर्ग में परिगणित किया गया है, *'चारयन्ति कीर्तिमति चारण'* जो स्वयं धर्म के पथ पर आरूढ़ होकर दूसरों को धर्मोंत्थान की ओर प्रेरित करे वो चारण।

>चारण शब्द योद्धा,सिद्ध, कवि इत्यादि पदों के योग में प्रयुक्त होता है जिससे इनकी सिद्धि सम्पन्नता तथा युद्ध कुशलता व काव्य प्रतिभा साक्षित होती है, देवसर्ग में परिगणित यह चारण जाति देवताओ के साथ विचरण करती थी।

> महाभारत के भीष्मपर्व 20वें अध्याय का 16वॉ श्लोक चारणों की महत्ता को प्रदर्शित करता है, महाभारत में उल्लेख है - कौरव, पांडवों की दोनों तरफ की सेना और अर्जुन को युद्ध के लिए तैयार देखकर श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि हे अर्जुन, तू देवी की स्तूति कर, वह तुझे विजय देगी , उस समय अर्जुन ने स्तुति की -
*तुष्टि: पुष्टि धृति दीप्ति, श्रद्धादित्यविदिनी ।*
*मूर्ति मति मतां संख्य, वीक्षसे सिद्ध चारणै:।।*

> रामायण काल में इनका निवास लंका में वाल्मीकि ने बतलाया है। ये अपने विशिष्ट गुण, कर्म के कारण चतुवर्णात्मक भारतीय समाज में भिन्न निरूपित हुए हैं। देव यज्ञों में सम्मिलित होना इनका अनिवार्य अधिकार था।

>महाभारत काल में इस जाति ने यायावार नामक आश्राम धर्म की स्थापना कर एक यायावरीय उपनिषद की रचना भी की, इस जाति के लोंगों के गोत्र भी आष होने से इनका ऋषियों से संबंध सिद्ध होता है।

सुन्दरकाण्ड 42, 161 : सद् धर्म की साधना में योगदान चारणों के जीवन का लक्ष्य रहा है।

>बालकाण्ड सर्ग 45, श्लोक 33 *"इमं आश्रम मृत्यसृज्य सिद्ध चारण सेविते हिमवत् शिखरे रम्ये तपस्तेये महायता:"* हनुमान जब सीता का अन्वेषण कर रहे थे तो उन्हें सीता के धर्म परिग्रह का वृत चारणों से ज्ञात हुआ था(सुन्दरकाण्ड 44 सर्ग 29) ,चारणों ने ही सीता के कुशल वृत के मंगल संवाद से संतप्त हनुमान के संताप को नष्ट किया था।

>पंचम् वेद महाभारत में भी चारण जाति के प्रसंग उल्लेख हुए है (आदि पर्व 126/11 ) अर्जुन ने इन्द्र से अनुमति प्राप्त कर सिद्ध चारण से शासित लोक में जाकर पांच वर्षों तक शस्त्र विद्या का अभ्यास किया था।

> *यजुर्वेद* में चारण शब्द का प्रयोग ऋचा में हुआ है, यजुर्वेद अध्याय 6, मंत्र 2 -
*"यथोमां वाच कल्याणी मानवदानि जनेभ्य:*
*राजन्याभ्यां शूद्राय चार्चाय च स्वत्व चारणयं"*
 इस ऋचा में चार वर्णों से पृथक उस चारण शब्द का उल्लेख यह बतलाता है कि इन चार वर्णों से भिन्न उद्गम वाली यह एक विशिष्ट जाति थी।

> ईसके अतिरिक्त
पद्मपुराण,गणेशपुराण,आदीत्यपुराण,
विष्णुपुराण,शीवमहापुराण,स्कन्दपुराण,
मत्स्यपुराण,ब्रह्मपुराण,वायुपुराण,
वामनपुराण,
भविष्यपुराण,मार्कण्डेय पुराण,विष्णुपुराण,
गर्गसंहिता,मनुस्मृति,अमरकोष,
हलायुधकोष,अष्टाध्यायी,नालन्दाविशाल
शब्दसागरकोष,भगवदगोमंडल,कालीदासकी रचनाओ,हर्ष चरीत्र,प्रसन्नराघव,राजतरंगिणी,अनर्ध राघव,पृथ्वीचन्द्र चरीत्र ईत्यादी जैसे प्राचीन महान ग्रंथो मे, और तो और बहोत से जैन ग्रन्थो मे भी चारणो के बारे में दिया गया उल्लेख ध्यान देने लायक है ।

चारणो का शस्त्र-शास्त्र,पर असाधारण अधीकार था,
अपीतु चारण क्षत्रीय वर्णस्थ माने जाते है।

*जीगर बन्ना थेरासणा

टोकरा गाँव का ईतीहास (ठीकाना)

*टोकरा गाँव का ईतीहास(ठीकाना)*

*शाख:-सौदा बारहठ*

जामनगर(सौराष्ट्र) के खौङ गाँव के चक्खङा शाखा के नरहा चारण के घर 13वीं सदी में एक कन्या का जन्म हुआ। जन्म के समय ही मुँह में दाँत होने के कारण ब्राह्मणों ने इसे अनिष्टकारी व अमँगलकारी बताया। भयवश इस कन्या को बूर(गाङ) दिया गया। ये सब करने के 15 दिन बाद यह कन्या जीवित मिली। इस चमत्कार के बाद यह कन्या आमजन के बीच बूरुङी(बिरवङी) नाम से शक्ति रूप में पूजित हुई।

चारणों की २४ मूल शाखाओं में 'मरुत' नाम की शाखा है; जिसकी 'पेटा' नाम की उपशाखा है। पेटा की ५२ उपशाखाओं में से एक कापल(कायपल) है। कायपल उपशाखा में आदिपुरुष के नाम से 'देथा' उपशाखा चली। माँ बिरवङी जी का विवाह इसी देथा उपशाखा के 'भूयात जी अथवा करमसेण जी' (अलग-अलग विद्वानों के मतानुसार) जो कि बनासकांठा क्षेत्र में 'संखङो' ग्राम का स्वामी था, से हुई।

सीसोदे गाँव के गुहील राजा 'हम्मीर' उस समय अपने पूर्वजों का मेवाङ राज्य पुन: प्राप्त करने के लीए संघर्ष कर रहे थे; जो कि १३०३ ईस्वी में अल्लाऊद्दीन खिलजी द्वारा हथिया लिया गया था।
हम्मीर ने माँ बिरवङी जी की शरण प्राप्त की। माँ बिरवङी ने हम्मीर को विजय वरदान दिया और अपने पुत्र बारू देथा को 500 घोङों सहित हम्मीर की मदद के लिए भेजा।
बारू ने हम्मीर को वचन दिया कि विजय प्राप्त होने पर वह हम्मीर को 500 घोङे मूल्य के बदले देगा। और यदि पराजय होती है, तो ये 500 घोङे हम्मीर को बिना किसी मूल्य के भेंट कर देगा। उक्त सौदे के कारण बारू; 'बारू सौदा' के नाम से जाना गया और आज भी इसके वंशज *'सौदा'*उपटंक से जाने जाते हैं। विजयोपरांत हम्मीर ने बारू को अपना 'गढपति' और 'दसोंदी' बनाया; बैठक की ताजीम, 7 हाथी, 500 घोङे, पैरो मे सोने के लंगर,सैंकङों ऊँट व गाय-भैंसें, अतुल्य स्वर्ण भँडार व 12 गाँवों की सोना नीवेस जागीर  अर्पित कर पग-पूजा की तथा अपने वंशजों को सौदा चारणों से कभी ना विरचने(विमुख होने) की सौगंध दिलवाई।


हम्मीर से ही मेवाड के शासको को राणा बीरुद प्राप्त है ।

राणा हम्मीर ने चित्तौङ के कीले में माँ बिरवङी जी का भव्य मंदिर बनवाया। आज भी हम्मीर के सिसोदिया वंशज माँ बिरवड़ी जी को बिरवड़ी माँ, बाण माता, अन्नपूर्णा आदि नामों से कुलदेवी के रूप में पूजते हैं।
बारू सौदा कालांतर में राणा हम्मीर के साथ लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ। इसी बारू की कुल परंपरा में सौदा पालम, सौदा बाजूड़, सौदा जमणा, सौदा अमरसिंह, सौदा नरू, सौदा जैसा, सौदा केशव ओनाडसिंह ,कृष्णसिंह ,केशरीसिंह,जोरावरसिंह,प्रतापसिंह सहित और भी बगोत से विर सौदा सिरदारों ने मेवाड़ी स्वातंत्र्य और स्वाभिमान की रक्षा हेतु कई युद्धो मे भाग लेकर वीरगति का वरण किया।

बारु सौदा को राणा हम्मीर द्वारा प्राप्य उमराव पद और 12 गांवो की जागीरी मे से ही एक ठीकाना है *पाणेर*।
 बारुजी सौदा की 4थी  पीढी मे पाणेर के दीपसिंह सौदा को ईडर के राजा राव विरमदेव ने ईडर में हठोज गांव की जागीर एनायत की।
 श्री दीपसिंह जी के सुपुत्र ठाकुर देवीदानजी सौदा को 1657 चैत्र सुद 3 के दीन ईडर के राजा राव कल्याणमलजी ने *टोकरा* जागीर अर्पीत करके लाखपसाव देकर दरबार मे बैठक की ताजीम सम़्मान पूर्वक दी।

ठाकुर देवीदानजी अपने छोटे भाई को हठोज देकर  टोकरा मे स्थिर हुए।
फीर से ठाकुर साब को दांता के महाराजा वाघजी की और से राणोल की जागीर प्राप्त हुई थी।

ठाकुर साब ने कोई पाठशाला मे से शीक्षा प्राप्त नही की थी ,मां सरस्वती उनके कंठ मे थी। वे खुद गुजराती,मारवाडी,डींगल,और पींगल भाषाओ के प्रखर जानकार थे । उनके तीन पुत्र थे:
१)मेशदानजी,२)मेघसिंहजी,३)रघुनाथजी
ईडर और दांता राज्य के दरबार मे ठाकुर साब का स्थान उच्च और सन्मान भरा था । ईन दोनो राज्य से समय समय पर ठाकुर साब को पुरस्कृीत कीया जाता था ।
ठाकुर साब ने भक्ति रस मे बहोत से काव्य लीखे थे,पर उनका साहीत्य आज अप्राप्य है। ७० वर्ष की आयु मे ठाकुर साब देवीदानजी का स्वर्गवास टोकरा मे हुआ।
उनके वंशज टोकरा के जागीरदार है और चारण समाज मे खानदान कहलाते है।

ठाकुर साब देवीदानजी के वंशजो मे
बहोत से विद्धवान कवि और शूरविर हुए।

जीनके नाम नीम्न है:
ठाकुर ईन्द्रसिंह जी सौदा,
ठाकुर गोपालसिंह जी सौदा,
ठाकुर छत्रसिंह जी सौदा,
ठाकुर उमेदसिंह जी सौदा,
ठाकुर खुशालसिंह जी सौदा,
ठाकुर जसराजसिंह जी(जसजी) सौदा,
ठाकुर आईदान जी सौदा,
ठाकुर हरनाथ जी सौदा(हठोज)

साबरमती नदी के उपर नीर्माण होने वाले धरोई बांध के भराव क्षेत्र में टोकरा गांव आ जाने से इस ठीकाने के सौदा बारहठो को अन्यत्र जमीने सरकार श्री तरफ से एनायत की गई।

आज भी श्री ठाकुर साब देवीदान जी सौदा के वंशज उनकी उच्चतम ख्याती की गवाही देते हुए  मेवा-टोकरा,विरेश्वर-टोकरा,गढवी कंपा और हठोज ईत्यादी गांवो मे सोनानीवेस जमीनो के स्वामी है।

जय माँ बीरवडी जी
जय माँ करणी जी
जय माँ आवड जी

*जयपाल सिंह (जीगर बन्ना) थेरासणा*