*!!सुप्रसिध्द यौध्दा नरुजी कविया !!*
*नरूजी कविया सुप्रसिध्द भक्त-वर कवि सिध्द अलूनाथ जी कविया के बङे सुपुत्र थे, नरुजी एक उत्कृष्ट कोटि के यौध्दा थे,बादशाह अकबर ने सन 1587 में मुगल साम्राज्य के सुदुर पूर्व के प्रान्तों में बंगाल, बिहार, उङीसा के अफगानों एंव स्थानीय शासकों के निरन्तर होने वाले उपद्रवों का दमन करनेहेतु आमेरके कछवाहा शासक मानसिंह को सर्वोच्च सेनापति और उच्च सुबेदार के पद पर नियुक्त किया था, मान सिंह ने अपने रण कौशल तथा सूझ-बूझ से अपने कर्तव्य को पूर्णकिया !!*
*नरू जी कविया मानसिंह की कछवाही सेनाके एक प्रतिष्ठित यौध्दा के रूपमें इस सेना के अभियान में साथ में थे, अफगान कतलू खां लोहानी ने उङीसा का शासन हस्तगत कर उसने पुरी के राजा को हरा कर प्रसिध्द जगन्नाथ मंदिर पर भी कब्जा कर लिया था ! उसने वहां पुजारियों तथा तीर्थ यात्रीयों पर तरह-तरह के अत्याचार करने प्रारम्भ कर दिए ! अतः मानसिंह ने अपने कुंवर जगतसिंह के नेतृत्व में एक बङी सेना कतलूखां के विरूध्द भेजी थी, यह घटना अप्रेल1590 की है ! उस सेना में जिन विश्वासपात्र सेनानायकों को कुंवर के साथ भेजा गया, उनमें नरूजी कविया प्रमुख थे !!*
*अफगानों ने शाही सेना पर भीषण अति भीषण आक्रमण कर दिया 21मई1590 को सूर्यास्त के समय के प्रहार को झेलने में मुगल सेना भी असमर्थ रही और उसी उसके पांव उखङ गए ! परन्तु कुछ वीरों ने बङी वीरता के साथ शत्रुऔं का सामना करते हुए,अपने प्राणों का बलिदान किया जिनमें चारण नरूजी कविया एंवं राठौङ महेश दास जी बीका प्रमुख थे ! इन दोनो महावीरों ने अपने प्राणों की आहूति देकर जगतसिंह की रक्षा की ! नरू जी कविया ने असाधारण वीरता दिखाते हुए सम्मुख युध्द में अपने भाले द्वारा कतलू खां को मारते हुए स्वंय भी वीर गति को प्राप्त हो गए ! नरूजी की इस अलौकिक अदभूत वीरता पूर्वक प्राणौ उत्सर्ग की प्रशस्ति में महाराजा श्रीपृथ्वीराज जी राठौङ का यह डिंगऴ गीत प्रसिध्द है !!*
*!! गीत !!*
*जां लागै दुखे नहीं सजावौ,*
*बीजां तजिया जूंझ बंग !*
*मोसै नरु तणै दिन मरणे,*
*अण लागां दूखियो अंग !!*
*पांव छांडता चढतां पैङी,*
*ईख्यो अलू सुतण निज अंत !*
*अण लागां दुखेवा आंणै,*
*दीठा नह फूटा गज दंत !!*
*अनराईयां हेमकर ओपम,*
*रहियो रूतो महारण !*
*कूंता हूंत मेहणी कवियै,*
*तद तीखा जाणांय तण !!*
*कतलू सरस बदंता कंदक,*
*टऴ्यो नहीं सुरातन टेक !*
*साहे खाग नरु पहुंतो श्रग,*
*ओजस बोल न सहियो ऐक !!*
*यह वीर गीत उस समय के प्रसिध्द कवि व यौध्दा पृथ्वीराज जी राठौङ जो कि उस समय में मौजूद थे व उस समय की सारी घटनाऔं के उपर गहरी सूझबूझ रखते थे उनके बनाने से इस गीतकी विश्वसनियता अधिक प्रामाणिक होती है, पृथ्वीराज जी ने महाराणा प्रतापसिंह जी पर भी बहुत काव्य लिखा था !!*
राजेंन्द्रसिंह कविया संतोषपुरा सीकर !!
*नरूजी कविया सुप्रसिध्द भक्त-वर कवि सिध्द अलूनाथ जी कविया के बङे सुपुत्र थे, नरुजी एक उत्कृष्ट कोटि के यौध्दा थे,बादशाह अकबर ने सन 1587 में मुगल साम्राज्य के सुदुर पूर्व के प्रान्तों में बंगाल, बिहार, उङीसा के अफगानों एंव स्थानीय शासकों के निरन्तर होने वाले उपद्रवों का दमन करनेहेतु आमेरके कछवाहा शासक मानसिंह को सर्वोच्च सेनापति और उच्च सुबेदार के पद पर नियुक्त किया था, मान सिंह ने अपने रण कौशल तथा सूझ-बूझ से अपने कर्तव्य को पूर्णकिया !!*
*नरू जी कविया मानसिंह की कछवाही सेनाके एक प्रतिष्ठित यौध्दा के रूपमें इस सेना के अभियान में साथ में थे, अफगान कतलू खां लोहानी ने उङीसा का शासन हस्तगत कर उसने पुरी के राजा को हरा कर प्रसिध्द जगन्नाथ मंदिर पर भी कब्जा कर लिया था ! उसने वहां पुजारियों तथा तीर्थ यात्रीयों पर तरह-तरह के अत्याचार करने प्रारम्भ कर दिए ! अतः मानसिंह ने अपने कुंवर जगतसिंह के नेतृत्व में एक बङी सेना कतलूखां के विरूध्द भेजी थी, यह घटना अप्रेल1590 की है ! उस सेना में जिन विश्वासपात्र सेनानायकों को कुंवर के साथ भेजा गया, उनमें नरूजी कविया प्रमुख थे !!*
*अफगानों ने शाही सेना पर भीषण अति भीषण आक्रमण कर दिया 21मई1590 को सूर्यास्त के समय के प्रहार को झेलने में मुगल सेना भी असमर्थ रही और उसी उसके पांव उखङ गए ! परन्तु कुछ वीरों ने बङी वीरता के साथ शत्रुऔं का सामना करते हुए,अपने प्राणों का बलिदान किया जिनमें चारण नरूजी कविया एंवं राठौङ महेश दास जी बीका प्रमुख थे ! इन दोनो महावीरों ने अपने प्राणों की आहूति देकर जगतसिंह की रक्षा की ! नरू जी कविया ने असाधारण वीरता दिखाते हुए सम्मुख युध्द में अपने भाले द्वारा कतलू खां को मारते हुए स्वंय भी वीर गति को प्राप्त हो गए ! नरूजी की इस अलौकिक अदभूत वीरता पूर्वक प्राणौ उत्सर्ग की प्रशस्ति में महाराजा श्रीपृथ्वीराज जी राठौङ का यह डिंगऴ गीत प्रसिध्द है !!*
*!! गीत !!*
*जां लागै दुखे नहीं सजावौ,*
*बीजां तजिया जूंझ बंग !*
*मोसै नरु तणै दिन मरणे,*
*अण लागां दूखियो अंग !!*
*पांव छांडता चढतां पैङी,*
*ईख्यो अलू सुतण निज अंत !*
*अण लागां दुखेवा आंणै,*
*दीठा नह फूटा गज दंत !!*
*अनराईयां हेमकर ओपम,*
*रहियो रूतो महारण !*
*कूंता हूंत मेहणी कवियै,*
*तद तीखा जाणांय तण !!*
*कतलू सरस बदंता कंदक,*
*टऴ्यो नहीं सुरातन टेक !*
*साहे खाग नरु पहुंतो श्रग,*
*ओजस बोल न सहियो ऐक !!*
*यह वीर गीत उस समय के प्रसिध्द कवि व यौध्दा पृथ्वीराज जी राठौङ जो कि उस समय में मौजूद थे व उस समय की सारी घटनाऔं के उपर गहरी सूझबूझ रखते थे उनके बनाने से इस गीतकी विश्वसनियता अधिक प्रामाणिक होती है, पृथ्वीराज जी ने महाराणा प्रतापसिंह जी पर भी बहुत काव्य लिखा था !!*
राजेंन्द्रसिंह कविया संतोषपुरा सीकर !!
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