क्षत्रिय चारण

क्षत्रिय चारण
क्षत्रिय चारण

रविवार, 24 दिसंबर 2017

सांयावत झुला

चारणो की वरसडा शाखा मे एक महापुरुष हुए जीनका नाम ठाकुर आल्हा जी वरसडा। आल्हा जी को कच्छ के शासक ने एक बडा सा झुले पर बैठा सोने का हाथी  भेंट कर दरबार मे सन्मान दीया। तब से वे झुला कहलाए। ठाकुर आल्हा जी झुला को गुजरात के महान शासक सिध्धराज जयसिंह ने उनकी विध्वानता की एवज मे लीलछा सहीत 12 ग्राम का पट्टा जागीर मे दीया। आल्हाजी की वंश परंपरा मे विक्रम संवत 1632 भाद्रपद विद नवमी को जागीर ग्राम लीलछा में स्वामी दास जी के घर  महात्मा भक्त कवि श्री सांयाजी झुला का जन्म हुआ । उनके भाई का नाम भांयाजी था । सांयाजी की संतान सांयावत झुला कहलाये और भांयाजी की संतान भांयावत झुला कहलाये।

नागदमण और रुक्मणीहरण नामक दो महान ग्रंथ के रचियता सांयाजी ईडर के राज दरबारी कवी थे। 

 महात्मा सांयाजी अनन्य कृष्ण भक्त थे।
 

सांयाजी झुला कुवावा के जागीरदार थे। राव कल्याणमलजी ने विक्रम संवत 1661 मे सायांजी झुला को 2 हाथी और लाखपसाव सहीत आलीशान कुवावा ग्राम जागीरी मे दीया। सांयाजी को 8 -घोडे , 6 -हाथी, और उठण / बेठण रो कुरब की ताजीम के सन्मान ईडर दरबार से एनायत थे।  सांयाजी को बीकानेर राजा रायसिंह जी ने लाखपसाव और 2 हाथी,जोधपुर राजा गजसिंह जी ने 13 शेर सोने का थाल,एवं लाखपसाव और ईडर से 6 बार लाख पसाव का सन्मान प्राप्त हुआ था । सांयाजी ने अपनी जागीर कुवावा में गोपीनाथ मंदिर , मंठीवाला कोट, किला(गढ) तथा बावड़ियां बनवाई थी ।  कुवावा के कीले मे उनका निवासस्थान(खन्डेर अवस्था मे) आज भी विध्यमान है  ।  ईडर रीयासत मे मुडेटी के ठाकुर ने अंग्रेजो से बचने के लीए ईस कीले मे शरण ली थी।और सांयावतो ने उनकी रक्षा कर अंग्रेजो से उनका बचाव कीया था।ईस अहेसान को आज तक मुडेटी वाले मानते है।

आज सांयाजी झुला के वंशज कुवावा के जागीरदार है और उनकी दया से कुवावा मे बहोत समृध्धी है।

कुछ सायावत झुला वागड प्रदेश (राजस्थान)से जुड़े हुए थे तो उनको वागड मे जागीरी प्रदान हुई । वे कुवावा से वहाँ जा बसे,आज वागड(राजस्थान)मे साँयावत झुला के
नरणिया,मकनपूरा,
माकोद,गामडा,चूंडावाडा,ठिकाने है।
जीवन के अन्तिम वर्षों में ब्रजभूमि जाते वक्त मार्ग में श्रीनाथद्वारा में श्रीनाथ दर्शन करने गये। वहां इन्होंने तेर सेर सोने का थाल प्रभु के चरणों में धरा था। जो आज भी विद्यमान है। उस दिन से आज तक वहां तीन बार आवाज पड़ती है “जो कोई सांयावत झूला हो वो प्रसाद ले जावें”।
मृत्यु के अंतिम दिन मथुरा में एक हजार गाये ब्राह्मणों को दान दी तथा हजारों ब्राह्मण गरीबों को भोजन करवाकर हाथ जोड़कर श्री कृष्णचंद जी की जय कर इन्होंने महाप्रयाण किया।

एक समय शाम को सांयाजी ईडर नरेश राव कल्याणमल जी की कचहरी में बेठे थे अचानक सांयाजी स्थिर हो गए और दोनों हाथों को जोर-जोर से रगड़ने लगे। सांयाजी की इस विचित्र क्रिया को देख राजा सहित सभा अचंभित रह गयी। थोड़े समय पश्चात सांयाजी हाथ रगड़ते बंद हुए और दोनों हाथो को अलग किये तो दोनों हाथ काले हो गए थे व हाथो में छाले हो गए थे। इन हाथो को देखकर राजा और प्रजा और ज्यादा अचंभित हुए। राणा जी से रहा नहीं गया तो सांयाजी से पूछा कि आप एक घडी तक स्तब्ध होकर क्या कर रहे थे जिससे आपकी हथेलियां काली पड गई और छाले पड गए, कृपा कर कविराज हमें बतावे।

तब सांयाजी बोले हे रावजी इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं, द्वारिका में श्री रणछोड राय की आरती उतारते समय पुजारी के हाथ में पकड़ी आरती की बाती से गिरे तिनके के कारण रणछोड राय के वाघो (कपड़ो) में आग लग गई तो इस घटना से मुझ सेवक को दृष्टीगोचर होने से दोनों हाथो से रगड़ कर आग बुझाने से मेरे हाथ काले हुए और छाले पड़े।

इस वक्तव्य पर राणाजी को विश्वास नहीं हुआ तो दुसरे ही दिन अपने विश्वासपात्र राठोड चांदाजी को इस घटना की सत्यता का पता लगाने के लिए द्वारिका भेजा। चांदाजी ने द्वारिका पहुंचते ही भगवान के दर्शन किये और जिस काम से आये उसका पता लगाने हेतु पुजारी से मिले और पूछा कि पुजारी जी गत मार्गशीर्ष मास की सुदी ग्यारस की शाम को रणछोड राय जी के मंदिर में कोई घटना घटी? तब पुजारी बोला में तो क्या पूरा शहर जानता हे कि आरती की बाती से गिरे तिनके के कारण रणछोड राय को नए धारण करवाए कपड़ो में आग लग गई और उस आग को सांयाजी ने अन्दर आकर बुझाई थी।

यह सुनकर चांदोजी बोले क्या उस दिन सांयाजी यंहा थे? तब गुगलिया महाराज बोले आश्चर्य क्यों कर रहे हो उस दिन सांयाजी यहाँ थे इतना ही नहीं वो तो संध्या आरती समय हमेशा यहाँ हाजिर होते हें।

यह बात सुनकर चांदोजी को और ज्यादा आश्चर्य हुआ कि ईडर की सभा में बैठकर दुसरे रूप में आग बुझाई वो तो ठीक हे मगर हमेशा यहाँ हाजिर होते हे यह तो नई घटना हुई।

शाम को आरती का समय हुआ झालरों की आवाज होने लगी चांदाजी आडी-तिरछी नजरें घुमाने लगे कि आज देखता हूँ सांयाजी को, इतने में द्वारकाधीश के द्वार की साख के पीछे सोने की छड़ी पकडे सांयाजी को खड़े देखा।

आरती पूरी हुई, सांयाजी ने सोने की जारी द्वारकाधीश के सामने रखी रणछोड़जी ने अपने हाथ लंबे कर जारी मे से जलपान किया। यह प्रत्यक्ष प्रमाण देख चांदोजी सत्य मानने लगे की ईडर में बैठे हुए सांयाजी ने ठाकुरजी के जलते हुए वाघे बुझाए थे।

एक साथ दो जगह सांयाजी की उपस्तिथि का वर्णन चांदाजी से सुनकर राव कल्याण ने उठकर सांयाजी के पांव पकड़ लिए।

धन्य हे चारण समाज जिसमे ईश्वर स्वरुपा साँयाजी ने जन्म लिया।


-जयपालसिंह (जीगर बऩ्ना)सिंहढायच ठि.थेरासणा

चारण-राजपूत परंपरा

*चारण- राजपूत परंपरा*

राजा रावल हरराज भाटी जैसलमेर
कहते है की मेरा राज्य व धन वैभव सभी कुछ चले जावे उसकी मुझे चीन्ता नही है परन्तु मेरे घर से चारण (भांजो) का जाना मुझे स्वीकार नही है-

कुछ पंक्तीया:,

> *जावैगढ,राज,भलै,भल जावै। राज गयां नह सोच रत्ती।।*
*गजबढ है चारण गयां सूं।पलटे मत,वण छत्रपति।।*

अर्थ:-रावल हरराज भाटी कहते है मेरा गढ चला जावे, राज्य सत्ता चली जावे, ईन सबके चले जाने पर मुझे लेश मात्र की चींता नही है। पर अगर चारण गया तो अनर्थ कल्पात हो जायेगा। ईसलीए राजपूतो तुम राजा बनने पर मदान्ध हो कर चारण को कभी मत भुलना।।

> *धू धारण केवट छत्रिधर्म रा। कळयण छत्रवट भाळ कमी।।*
*व्रछ छत्रवाट प्राजळण वेळा।ईहग सींचणहार अमी।।*

अर्थ:- जीस प्रकार ध्रुव अटल है उसी प्रकार चारण अटल व अडीग रहकर क्षत्रिय धर्म नीभाते है,वे जहा कही भी क्षात्रधर्म की कमी देखते है उसे तत्काल पुरा करते है। ये चारण क्षात्रवट रुपी वृक्ष को सींचकर सदैव हराभरा रखने वाले है।

> *आद छत्रियां रतन अमोलो। कुळ चारण अपसण कीयो।।*
*चोळी-दांमण सम्बध चारणां। जीण बळ ,यळ रुप जीयौ।।*

अर्थ:- शक्ति ने चारण नामक जाति उत्पन्न करकर क्षत्रियो को यह अमूल्य रत्न प्रदान कीया है। ईस पावन सम्बन्ध -'चोलीदामन'(चारण - राजपूत, भांजा-मामा) का स्थापित किया है ,अब तुम ईनको साथ रखकर अपने बल से जीवित रहो।

*जीगर बन्ना थेरासणा*

दसोंदी / चारण

*दसोंदी / चारण*

राजपूताना के रजवाडो के राजा  चारणो को वंदनीय ,पुजनीय मानते थे,और बडा मान सम्मान देते थे। राज दरबार मे चारण का स्थान उच्च और सन्माननीय था।

>"दसोंदी" यानी देशी राज्य की सभी आवक मे से दस वे हीस्से का हकदार(चारण)।

>दसोंदी चारण का राज दरबार मे उच्च स्थान और प्रतीष्ठीत व्यकत्तीत्व था, उनको पुरे राज्य मे राजा जेसा ही मान-सन्मान मीलता था।

 >राजकुमारीओ के रीश्ते की बात करने दसोंदी चारण जाते थे।

> चारण युद्ध भुमी मे हरावल टुकडी (पुरी सेना का नेतृत्व करने वाली टुकडी,जो युद्ध मे सबसे आगे होती थी) मे सबसे आगे खडे रेहते थे,और अपना शौर्य प्रदर्शन करते विरता से युद्ध लडते थे।

चारण-राजपूत की दसोंदी की जोडी ईस प्रकार है :,

सौदा - सीसोदीया
रोहडीया - राठोड
दुरसावत(आढा) - देवडा चौहान
सिंहढायच - प्रतीहार/पढीयार
रत्नु - भाटी
नांदु - खीचि

>दसोंदी जोड पर एक दोहा प्रचलीत है,

*।।सौदा अने सीसोदीया, रोहड ने राठोड,*
*दुरसावत ने देवडा, यादव रत्नु जोड।।*

*जीगर बन्ना थेरासणा*

मंगलवार, 5 दिसंबर 2017

गढपति/गढविर/गढवी/चारण

*चारण/गढपति/गढवी*

चारण गढपति था , गढ दुर्ग का स्वामी था, परंतु  राज कुल का आवास भी वही उसके साथ था। राज पुत्री के विवाह अवसर पर धर्म अौर मर्यादा का व्यवधान पैदा हो गया।आंगातुक परीणय कर्ता राज पुत्र के लिए तोरण वन्दना पर गढवी का दुर्ग उसकी बहेन का आवास कहा जाता था। गढवी का आवास राजपुत्रो मे बहेन का आवास कहलाता है। तब आने वाला दुल्हा उस चारण के दुर्ग पर तोरण वन्दना कैसे करे? ईस व्यावधान के निराकरण के लीए सर्व सम्मती से निर्णय लीया गया कि तोरण वन्दना मे हाथी या घोडा गढपति स्वयं का होना होगा,जिससे मानो गढपति की आग्या से वह राजपुत्र के वहा विवाह की स्वीकृत है। तथा गढवी के आवास का दोष भी नही लगता। उस काल मे राज सत्ता पूर्ण रुप से धर्म सत्ता व धर्म आधारित थी जीसका संवाहक एक मात्र गढपति(चारण)था।

शत्रु सेना की वीजय पूर्ण संभावना पर गढपति का ही कर्त्तव्य रहता था की वह रनिवास/रानीवास की सुरक्षा करे और आवश्यक होने पर वह उन्हे सुरक्षीत स्थान पर ले जाकर संरक्षण प्रदान करे।शत्रु सेना के दुर्ग पर आक्रमण करने पर दुर्ग के द्वार बंद कर दीये जाते थे ओर कीले की चाबीया गढपति को सोंप दी जाती थी।

बहुत समय पश्चात राजपुत्रो केे मनोदशा मे परीवर्तन आया उन्होने गढपति के अधीकारो को सीमीत करने का सोचा। गढपति(चारण) के पास देवी का आशीर्वाद तो था ही जबकी उनके पास अब रण कौशल व पर्याय सैनीक शक्ति थी।
राजपुत्रो ने कहा की हमे सैनीको पर बहुत अधीक व्यय करना पडता है ईसलीए अब हम समस्त आय का दसवा भाग आपको अदा करने मे समर्थ है (जीससे चारण *दसोंदी* केहलाए)अब आप 10-12 गांव लेकर अपना पृथक स्वतंत्र क्षेत्र स्थापित करले ।उस क्षेत्र व आपकी उस प्रजा पर हमारा किसी भी प्रकार का हक-हकुक नही होगा(जैसे वर्तमान मे कीसी देश का हाई कमीशन होता है, कुछ वैसा ही समझे।)
आपका वह क्षेत्र आपका स्वयं का अपना शासन होगा,तथा उस पर जारी कीये गये कानूनो का हम प्रसन्न चीत्त से बीना कीसी तर्क के पालन करेंगे। *चारण 30-40 बीघा से लेकर 30-40 गाँव के स्वामी तक होते थे।*(ईसी लीए मध्यकालीन युग मे चारणो के नाम के आगे ठाकुर और नाम के पीछे सिंह शब्द का प्रयोग होता था)

चारणो ने वक्त की नजाकत को समझकर इस प्रस्ताव स्वीकार लीया। राजपुत्रो ने चारणो को गढ से पृथक कर कुछ गांवो का स्वामीत्व सोंप दीया।गढवी के समस्त अधीकार यथावत रहे गढपतियो को राज्य का वैभव व गढपति की योग्यता अनुसार कुछ गांव जागीरी मे दीये गये जो गढवी का अपना शासन क्षेत्र कहलाता था। उन गांव का क्षेत्र स्वशासन जो शासन/सांसण के नाम से वर्तमान तक जाने जाते है।

चारण राजपूत का प्रगाढ सम्बन्ध तथागत कायम रहा चारणो ने तोरण वंदना की मर्यादा को यथारुप रखते हुए राजपुत्रो और अपने वीवाह रश्म मे तोरण वंदना मे हाथी या घोडा चारण अपना स्वयं का कार्य मे लेते थे।

*जीगर बन्ना थेरासणा*

क्षत्रिय गढपति चारण

 गढविर चारण गढ की रक्षा मे राह चलते भी अपना धर्म व मर्यादा समझकर मरना कबूल कर लेते थे।चारण का सत्य संभाषण व गढरक्षा का मर्यादित धर्म अप्रतिम शौर्य के साथ साथ हजारो वर्षो तक बडी शालीनता के साथ निर्वहन किया जाना देवीमाता हिंगलाज की शक्ति से ही संभव हो सका है। ईसलीए एसे उदाहरण सम्पूर्ण जगत मे केवल एक   चारण राजपूत के सनातन मे ही मीलते है ।

चारण गढपति होता था ईसलीए जैसलमेर का कोई भी शासक गद्दीनशीन होने पर सर्वप्रथम उसके दरबारी चारण का राज्याभिषेक करता था। वह राज्य छत्र पहले चारण गढपति के सिर पर धारण करवाया जाता था,तत्पश्चात भाटी शासक के सिर पर वही छत्र धारण करवाया जाता था । जीससे जैसलमेर भाटी राजवंश 'छात्राला भाटी' कहलाते। ईसका अर्थ है की चारणो के हाथ से दीये गये राज्य का संचालन उनकी आग्या से कर रहे है।

*जीगर बन्ना थेरासणा*

सोमवार, 13 नवंबर 2017

symbol of charan cast










युद्ध भुमि के विर "चारण"

क्षत्रित्व का पाठ पढाने वाला चारण कीतना विर होगा?यह बात सहज ही सबके मस्तीस्क मे घुमती है।तब ईस प्रश्न का उतर जानने के लीये चारण की वीरता के अद्रीतीय उदाहरण प्रस्तुत कर रहे है ताकी चारण से अनभीग्य लोग भी ईसे जानकर अपने संजोये भ्रम से मुक्त हो सके।

सन 1311 में सुल्तान अल्लाउद्दीन खिलजी ने जालौर के राजा कान्हड़दे सोनगरा पर आक्रमण किया तब उसके सेनापति सहजपाल गाडण ने असाधारण शौर्यप्रदर्शन कर वीरगति पाई थी ईस युद्ध मे आसाजी बारहठ के साथ ग्यारह चारण भी थे ।

महाराणा हम्मीर के साथ चारण बारुजी सौदा 500 घोड़े लेकर अल्लाउद्दीन खिलजी से लड़े थे और खिलजी के मरने के पश्चात हम्मीर को चित्तौड़ की गद्दी पर बैठाने में सफलता पाई थी।
ईन्ही बारुजी के पुत्र पालमसिंह सौदा राणा रायमल के साथ मुसलमानो की सेना मे युद्ध लडते हुए "पाडलपौल"पर चित्तोड के कीले मे शोर्यता दीखाये विरगति को प्राप्त हुए थे।

जगदीश मंदीर की रक्षा हेतु और बादशाह ने उदयपुर पर जब धाबा बोला तब नरुजी सौदा द्वार पर लडते लडते  विरगति को प्राप्त हुए उनका सिर कटने के बाद भी धड लडा और ३०० कदम चल कर लडने के बाद वो गीरे।

सेणोंद के स्वामी जमणाजी सौदा ने पीली खांट मे  मांडु के बादशाह से शौर्यतापुर्वक लडते हुए १५८४ मे विरगती को प्राप्त हुए ।ईनके पुत्र का नाम राजविरसिंह था ईन्होने भी युद्ध की कई होलीया खेली। एक कडवा सत्य है की राणा सांगा के साथ अगर विर सौदा चारण न होते तो खानवा के युद्ध के पराजय के बाद सांगा प्राण त्याग देते।

प्रसिध्द हल्दीघाटी की लड़ाई में महाराणा प्रताप के साथ सेना में हरावल मे रामाजी सांदू व सौदा बारहठ जैसाजी व केशवजी भी लड़े थे    अदभूद वीरता दिखाकर वीरों के मार्ग गमन किया था।और भी बहोत से चारण हल्दीघाटी मे लडे थे जीसमे सुरायजी टापरीया,गोरधन बोग्सा आदी बहोत से विर चारण थे।

सन 1573 में अकबर द्वारा गुजरात आक्रमण के समय वीरवर हापाजी चारण मुगल सेना में तैनात थे।

मेवाड महाराणा जगतसिंह की सेना ने सिरोही पर हमला कर दीया ये युद्ध बनास नदी के तट पर हुआ मेवाड की और से चारण सिरदार महाराणा जगतसिंह के समर्थ सलाहकार ठाकुर गोपालदास सिंहढायच और चारण खेमराज दधवाडीया सेना मे तैनात थे ।

सिरोही के राव सुरताण और अकबर के मध्य सन 1583 में लड़े गए युध्द में दुरसा आढा मुगल सेनाकी और से तथा दुदाजी आसिया ने सिरोही की और से लड़ाई में भाग लिया था।

जालौर के किले में वि.सं. 1760 जोधपुर के मानसिंह को महाराजा भीमसिंहजी की सेनाने घेरलिया था, तब महाराजा मानसिंह के साथ मारवाड़के तत्कालीन समयके प्रसिध्द सतरह (17) चारणों ने वीरतापूर्वक लड़ करके अपने स्वामी की रक्षा की थी, उनमें भी जुगतो जी वणसूर नें तो सावधानी पूर्वक दो बार किले के घेरे से बाहर निकल कर एक बार अपने घर के गहणें बेच कर तथा दूसरी बार अपनें छोटे पुत्र को खारा के मंहन्त के गिरवी रख कर धन की व्यवस्था भी महाराजा मानसिंह को सुलभ करवाई थी। मानसिंहजी जुगतो जी वणसूर को काकोसा कह कर सम्बोधित किया करते थे।

हाजर जुगतो हुओ, पीथलो हरिंद पुणीजै।
दोनां महा दुबाह, सिरे फिर ऊंम सुणीजै।।
मैघ अनै मेहराम, ईंनद ने कुशलो आखो।
भैर बनो भोपाल, सिरै चौबीसो साखो।।
पनौ नै नगो नवलो प्रकट, केहर सायब बडम कव।
महाराज अग्र घैरै मही, सतरह जद रहिया सकव।।
ऊपरोक्त 17 चारणो ने मान सिह जी के साथ जालोर के घैरे मे साथ दिया। सभी के नाम निम्न प्रकार हैं।
1-जुगतीदानजी वणसूर, 2-पीथसिंहजी सांदू, 3-हरिसिंहजी सांदू, 4-भैरूंदानजी बारठ, 5-बनजी नांदू, 6-ऊमजी बारठ, 7-दानोजी बारठ, 8-ईंदोजी रतनू, 9-कुशल़सिंहजी रतनू, 10-मेघजी रतनू, 11-मयारामजी रतनू, 12-पनजी आसिया, 13-नगजी कविया, 14-भोपसिंहजी गाडण, 15-नवलजी लाल़स, 16-केसरोजी खिड़िया, 17-सायबोजी सुरताणिया

मेवाड़ के मैंगटिया गांव के गाडण सुलतान जी के पुत्र भगवानदास और भैरूंदास बड़े वीर पुरुष व महाराणा की सेना में सिपहसालार के पद पर थे, तथा महाराणा की और से बादशाह को दी जाने वाली सैनिक टुकड़ी में दिल्ली में तैनात थे, दिल्ली की कैद से मराठा छत्रपतिजी महाराज शिवाजी को निकालने में मिर्जा राजा जयसिंह के पुत्र रामसिंह का हाथ होने पर उसे षडयंत्र पूर्वक मारने की योजना को इन दोनों गाडण भाईयों ने सफलता पूर्वक विफल कर दिया था तब मिर्जा राजा रामसिंह ने इन दोनो को हरमाड़ा गांव की जागीर प्रदान कर आमेर के पास ही बसाया था।

हररुपजी आशीया ने महाराणा प्रताप की पाग को न जुक ने देकर अकबर के खीलाफ युद्ध छेडा थे और हररुप जी आशीया ने महाराणा प्रताप की और से युद्ध मे अद्वीतीय विरता दीखाई थी  १२ अंगरक्षको को मारने के बाद अकबर के सुबे अजीज को चारण ने अपने अश्व से उसके हाथी के सुंठ पर चढ कर भाले से वार कर ऐक ही झटके मे सुबे को मार गीराया था और शहीद हुए थे।

सिध्द अलूनाथजी कविया के बड़े पुत्र नरुजी कविया ने आमेर के राजा मानसिंह के साथ में उड़िसा में कटक के युध्द में कतलू खाँ नामक पठान इक्का को द्वंद युध्द में मार कर वीरगति पाई थी।
दुसरा युद्ध कतुलखां लोदानी के वीरुद्ध जोधपुर की सेना मे ईन्होने विरता दीखाई थी, और कुंवर जगतसिंह के प्राण बचाये थे।ईस युद्ध मे नरुजी के पुत्र जैसाजी कविया भी सम्मलीत थे।
ईन्ही के वंशज विजयसिंह ने अमिरखां पठान के वीरुद्ध  दांता ठाकुर गुमानसिंह (गुमानसिंह युद्ध छोडकर भाग गया तब पुरा युद्ध का मोरचा विजयसिंह ने संभाला था) के युद्ध मे बहोत से मुस्लीमो के सर काटे तभी वीजयसिंह का बेटा ईस युद्ध मे कटकर गीरा बदले मे उन्होने नवाब का सर धड से अलग कीया था ।
इस विषय का एक प्रसिध्द वीर गीत भी बनाया हुआ है। कविया वंश की शाखा का वीरता के गीत का एक भाग देखिये।

पाँच कम साठ नरपाल रा पोतरा आठ पीढीयां मांही काम आया।।

अर्थात पचपन वीर पुरुष आठ पीढीयों में लड़ाई में वीरगति को प्राप्त हुऐ।

इतिहास प्रसिध्द कविया करणीदान जी अहमदाबाद की लड़ाई में जोधपुर महाराजा अभयसिंह के साथ हरावल में थे, तथा पहले दिन की लड़ाई में जोधपुर की सेना को दबती देखकर कविया करनीदान जी ने अभयसिंह जी को कहकर सेना के मोर्चे दूसरी जगह लगवाये थे और जीत हासिल करने में कामयाब रहे थे और जीत कर घर आने पर सूरज-प्रकास और विरद-सिणगार की रचना की थी।

गांव केड़ की ढाणी के किशनाजी बारहठजी नें मांढण के युध्द में शेखावतों के साथ मिलकर मुगलों व मित्रसेन अहीर की सेना को हराया था व स्वंय वीरगति को प्राप्त होने पर उनके पुत्र ईश्वरदानजी को बिसाऊ ठाकुर श्यामसिंह जी ने श्यामपुरा की जागीर प्रदान की थी।

दलपत बारहठ बीकनेर की सेना मे मराठो से १७५५ मे अपने पुत्र विजा के साथ लडते लडते विरगति को प्राप्त हुए थे।

बडलु के युद्ध मे आसोपा ठाकुर शिवनाथसिंहजी के जोधपुर आक्रमण मे भदोरा ठाकुर गिरवरसिंह सांदु कंधे से कंधा मीलाए थे।ईस भीसण युद्ध मे बहोत से सैनीक रणभुमी छोडकर भाग गए परंतु ठाकुर गिरवरसिंह ने अडीखम होकर युद्ध भुमी को रक्तरंजीत कीया था।

जोधपुर के जसवन्तसिंह प्रथम शाहजहा के विद्रोह शाहजादो को परास्त करने १७१५ मे उज्जेन गये ईस सेना मे हरावल मे जसराज बारहठ इतने पराक्रम के साथ लडे के एक टक होकर जसवन्तसिंह उनको देखने रणभुमी मे ठहर गये।

सौराष्ट मे सात गाँवो के स्वामी वीहलदेव चारण का मुख्य ठीकाना आंबरडी पर अहमदाबाद के बादशाह ने चढाई की ,तब उनके साथ ११ चारण मीत्रो ने मुस्लीम सेना के साथ तलवार को ऱक्त से नहलाकर युद्ध कीया बहोत से मुस्लीमो को काटकर १२ चारण विरगती को प्राप्त हुए थे।

राजकोट की दरबार कचेरी मे एक पठान ने तलवार सहीत दरबार मे कदम रखा और राजा को मारने हेतु वो जेसे ही आगे बढा उससे पहले जैसाजी चारण जो दरबारी थे उन्होने पलक जबकते ही पठान को कटारी से गले पर वार कर वही ढेर बना दीया।

१६३९ मे जामनगर मे अकबर नी सेना के सुबेदार  मीरजा अजीज कोका ने युद्ध करने हेतु सेना भेजी तब जामनगर के विर चारण परबतजी वरसडा जामनगर के प्रत्येक गांव जाकर नौजवानो की ऐक टुकडी तैयार की तो दुसरी और ईशरदासजी के पुत्र गोपालदासजी बारहठ  ने अपने भाईओ और परीजनो सहीत 500 तुम्बेल चारणो की टुकडी का स्वयं नेतृत्व करते हुए रण भुमी मे पहोंचे ये युद्ध मे करीब ७००से ज्यादा चारणो ने विरता पुर्वक युद्ध कीया और वीजयी हुए ईस युद्ध को "भुचरमोरी" के युद्ध से जाना जाता है

वर्तमान समय में भी अपने जातीय संख्यांक के अनुसार अनेकानेक चारण बन्धुओ की सेना के तीनों अंगों में तैनाती है तथा देश की सेवा में अपना कर्तव्य-निर्वहन कर रहे हैं।
संदर्भ:
>विरवीनोद
>चारण दीगदर्शन
>चारण ऩी अस्मीता

*जीगर बन्ना थेरासणा*

शुक्रवार, 10 नवंबर 2017

चारण जाती के लीए विद्धवानो और राजाओ के मंतव्य

*चारण जाती के लीए राजा और विध्धवानो के मंतव्य*

चारणो ज राजाओ ने सत्य हकीकत कही शके छे तेओ बधा करता श्रेष्ठ छे ।
     -सर प्रभाशंकर पंडीत

चारण जाती की महता सत्यकथन,विरत्व,नीलोभीता,ईन्द्रीयनिग्रह पर ही प्रतिष्ठीत है, चारण जाति शस्त्र,शास्त्र आदी सब बातो मे राजपूतो की अगुआ रही है,और ईस जाती के सद उपदेश से राजपूतो का उपकार होता ही आया है।
 -महाराजा बलभद्रसिंहजी

चारण जाति हमेशा राजपूतो कि पथप्रदशक रही है।
 -श्रीमान महाराजा रामसिंहजी सितामऊ

यह चारणो के परम पराक्रम,सत्यता,बुध्धीमता का ही प्रताप था की नीडर जाति शताब्दीओ तक राज्य कायम कर शकी ।
 -ठा.सा. केशरीसिंहजी सौदा

चारण जैसा भी हो हमारे लीए पूजनीय है,चारण दरबारी है ईस लीए श्रेष्ठ नही है,वह हम पर अंकुश रुप है ईसी लीए हम उन्हे श्रेष्ठ मानते है ।
 - केप्टन जोरावरसिंहजी पन्ना स्टेट

चारणो भारत वर्ष मा देवदरबार ,राजदरबार,लोकदरबार सर्वत्र सन्नमानीय छे अने सर्वत्र अेमना साहीत्य नी भान थाय ते जोवानी मारी महेच्छा छे।
 -गोकलदास रायचुरा,संत्री शारदा

चारण भारतीय संस्कृती के उदघोषक ही नही,उसके मूलतत्व के प्राणपण से रक्षक भी रहे है । शस्त्र ओर शास्त्र पर उनका असाधारण अधीकार रहा है।
 -डो.भगवतीप्रसादसिंह गोरखपुर युनीवर्सीटी,गोरखपुर

राजपूताना के राजा वह जाती को बहोत मान सन्मान देते है, विश्वास पात्र मानते है और इनका उच्च दरज्जा है। राजा महाराजाओ की और से उन्हे कुरब,कायदे और ताजम दी जाती है । दरबार मे उनकी ईज्जत वाली सन्मानीय बेठक है । कसुंबा लेते समय सीरदार पहले चारण सीरदार को मनवार करते है । काव्य रचना ईतना ही नही वीपत्ती के समय तन,मन,धन और बाहुबल से उनकी भरपूर सहायता की है ,ये हकीकत का राजपूताना का ईतीहास साक्षी है। उनकी बहोत जागीरे राजपूताना मे है। चारण स्पष्टवक्ता और सत्यवादी है वह राजा महाराजाओ को सत्यता सुना ने मे बीलकुल भी संकोच नही करते थे,राजा महाराजा उनके डर से ये मानते है,की हम चारणो की कवीता मे पीढी दर पीढी दयाहीन रहेगे ,हमारी प्रतीष्ठा कम होगी तो वह गलत या अनीती करने से अटकते थे ।
-केप्टन अे.डी. बेनरमेन आई.सी.एस.(हीन्दुस्तान ई.स.१९०१ वस्तीपत्रक अनुसार)

चारण - चाह+रण=रण की चाह रखने वाला अर्थात संग्राम का चहेता । स्वाभीमान आत्मरक्षा व मातृभुमी की रक्षा के लीये युद्ध करने वाला और उसकी अनिवार्यता बताने वाला
 -मयाराम री ख्यात -ठाकुर शंकरसिंह जी आशिया

चारण हमेशा सत्यवक्ता,नितीपरायक,शूरविर,और कर्तव्यनिष्ठ थे। वो सच्चे समाज सेवक थे,चारण राजा-प्रजा का  पिता-पुत्र समान संबध ऱखने मे सबल साधनरुप थे  भूतकाल मे राजाओ को आकरे और सत्य शब्द सुनाने मे जब कोई भी वर्ग समर्थ न था तब चारणो ने उस कार्य को बीना संकोच ओर नीडर होकर कीया है, ईतीहास गवाह है।
-सोरठविर छेलशंकर दवे

चारण भूतकाल मे राजपूतो को (राजाओ को) नैतीक बल से सहायता प्रदान करने का स्त्रोत बने रहे है यह सहायता किसी भी भौतीक सहायता से बहुत महत्व पूर्ण है।  युद्ध के समय मे एंव अन्य राष्टीय आपति के अवसरो पर चारणो ने परामर्श, बाहुबल,पथप्रदर्शक,एवं प्रोत्साहन से राजपूत अपने शौर्य एंव मान प्रतीष्ठा के परंपरागत पवित्र आदेशो को नीभाय रखने मे समर्थ हुए थे ,जीसके अैतीहासीक संस्मरण उन्हे सारे संसार मे विख्यात कर रहे है ।
  -ठा.सा. चैनसिंहजी चांपावत जोधपूर

चारण जाती राजपूतो से भी अधीक विर थी यदी ऐसा न होता तो उनकी वाणी से कायर राजपूतो मे विरता का संचार होना असंभव था ।
-महाराजा बलभद्रसिंह जी

अकल,विधा,चित उजलौ।अधको घर आचार।
वधता रजपूत विचै। चारण वातां चार।।
-जोधपुर महाराजा श्री मानसिंहजी
पहली अक्ल दुसरा विधा
तीसरा मन से पवित्र, और चौथा ईनके घर का आचरण ईन चार बाबतो मे चारण राजपूतो से अभी तक बहुत आगे है।

जीगर बन्ना थेरासणा

क्षत्रिय "चारण"

⚔ *क्षत्रिय "चारण"* ⚔


वैसे तो चारण देवलोक मे रहने वाली देवजाती थी उनकी यह बात का प्रमाण हमे रामायण,भागवतगीता,गरुडपुराण,गणेश पुराण,ब्रह्मा पुराण,नरसिंहपुराण,वीष्णुपुराण,शिवमहापुराण,जैसे महान प्राचीन पवीत्र गंथ्रो मे देखने को मीलता है।पृथु राजा द्वारा चारण देवलोक से पृथ्वी पर आये और पृथु राजा ने उन्हे अपने दसोंदी बनाकर गढपति बनाया,दरबारी बनाया और कुछ चारण रुषी होकर हीमालय मे जा बसे।

परंतु मनुष्यलोक के चार वर्णो मे (ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्व,शुद्र)चारण को गीना जाय तो वो हे क्षत्रीय वर्ण।अनादी प्राचीन काल से ही माँ भगवती सती हींगलाज के आदेश अनुसार चारण-राजपूत सनातन संबध चलता आया है,नागवंशी क्षत्रीयो का तो चारणो के साथ मामा भांजे का संबध है ,ईस बात का ईतीहास प्रमाण देता है।  चारण उभयकर्मी होने पर भी मूल रुप से क्षत्रीय कर्म प्रधान होने से क्षत्रीय जाती कहलाती है , फलत यह पुर्ण रुप से क्षत्रीय वर्ण से है ।क्षत्रीय जाती के तराजु मे यदी राजपूत के साथ चारण को तोला जाये तो कीसी भी पलडे मे रख दो ईनका समान्तर अस्तित्व रहेगा।

चारणो ने कलम के साथ साथ करवाल(तलवार) धारण कर अपना हस्तकौशल दीखाया है,रणबांकुरे चारणो के युद्ध नैपुण्य के द्रश्य ईतीहास मे अगणीत देखने को मीलते है। चारणविरो ने आत्मरक्षा,स्वाभीमान और मातृभुमी के लीए अपनी जान हानी का न सोच कर तलवारो को रक्तघुंट पीलाते क्षत्रीय धर्म नीभाया है।

क्षात्रवट को संभाल ने मे राजपूताना के ईतीहास मे कीसी का मुख्य भाग है तो उसका मान भी चारणो को ही जाता है।

क्षत्रित्व का पाठ पढानेवाला चारण कीतना विर होगा?यह बात सहज ही सबके मस्तीस्क मे घुमती है,तब इस प्रश्न का उतर जानने के लीए (राजपूताना के) चारणो का ईतीहास व साहीत्य जानना आवश्यक है,ताकी चारण से अनभीग्य लोग भी ईसे जान कर अपने भ्रम से मुक्त हो सके।

स्पष्ट है की पुरातन एंव मध्यकाल मे चारण राजपूत का चोलीदामन का प्रगाढ रिश्ता रहा है सांस्कृतीक द्रष्टी से(रितीरिवाज) से ये कभी भीन्न नही हो सकते एक दुसरे के अभिन्न अंग है।
चारणो और राजपूतो मे आचार-विचार,खान-पान,पहेरवेश,रीतिरिवाज,डीलडोल,रेहणी-केहणी सब कुछ ऐक है।

चारणो के एक पुराने महान संघठन "अखील भारतीय चारण महासभा" के प्रथम अधीवेशन  जो पुष्कर मे हुआ था।
ई.स.1921 कार्तीक शुक्ल त्रयोदशी से पूर्णीमा तक ये कार्यक्रम चला था। उसमे हाजर सभ्यो के नाम:
>सम्मेलन के प्रधान संयोजक:चारण कुल भुषण श्रीमान ठाकुर साहेब श्री केशरीसिंहजी बारहठ
>कोटा कविराज ठाकुर साब श्री दुर्गासिंहजी महीयारीया,>पोपावास के ठाकुर सा.मोतिसिंहजी कीनिया,>भांणपुर के ठाकुर सा श्री भवानीसिंहजी आढा
>स्वागत अध्यक्ष:मोही ठाकुर साब श्री डुंगरसिंहजी भाटी
>प्रथमदीन के सभापति:श्रीमान ठाकुर साब शंकरसिंहजी दुरसावत
>दुसरे दीन के सभापति:ठा.सा. दुर्गासिंहजी महीयारीया
>तृतीय दीन के सभापति:श्रीमान राजराजेश्वर महाराजा बलभद्रसिंहजी हाडा
>सम्मेलन के प्रधानमन्त्री:मेंगटीया नरेश ठाकुर ईश्वरदानजी आशीया

ईस सम्मेलन मे बडे बडे राजपूत सिरदार और बडे बडे चारण सिरदारो के बीच चारणो को क्षत्रीय घोषीत कीया गया था, चारण क्षत्रीय वर्णस्थ तो थे ही पर लोगो की अलग अलग भ्रांतीयो की वजह से राजराजेश्वर महाराजा बलभद्रसिंहजी के नेतृत्व मे ये फैसला लीया गया था।समजदार वर्ग को तो पता ही था की चारण कौन हैैैै, पर नासमजो को ये पता चले ईस लीए।
चारण युद्ध भुमी मे सबसे आगे हरावल टुकडी मे रहते थे ईस टुकडी मे राजपूत भी होते थे ।  चारण युद्धभुमी मे तलवार को रक्त से नहलाकर,कई दुशमनो को काट कर विरगति को प्राप्त होते थे।वे वीकट परिस्थीती मे हमेशा लडने को तैयार रहते थे।
 आज भी चारण देश की सेवा मे तिनो खांपो मे तैनात है, उनको आज भी सैना मे जाना ज्यादा पसंद है।
>संदर्भ:-
*1 चारण कुल प्रकाश-ठा.कृष्णसिंह बारहठ*
*2 चारण नी अस्मिता-श्री लक्ष्मणसिंह गढवी*
*3 चारण दिगदर्शन-ठा.शंकरसिंह आशीया*
*4 चारणो की स्वातंत्रता लीपसा-डो.सोनकुंवर हाडा*

*जीगर बन्ना थेरासणा*
*विर चारण महा सेना ग्रुप*⚔

मंगलवार, 7 नवंबर 2017

धानडा शाख की रोचक जानकारी

🗡  धानडा शाखा की कुछ जानकारी और ठिकानों के इतिहास 

गोत्र - तूम्बेल 
कुलऋषी - शंकरा
कुलदेवी - रवेची,चामुंडा
कुलब्राह्मण - मसूरियो 
शाखा के माँगणियात(याचक) - भरडोसो 
उप शाखा की संख्या - 13  1/2

>तुम्बेल गोत्र के अन्तर्गत धानडा शाखा आती है। धानडा सिरदारो का एक दोहा है:
सुरा जिमावण साॅढ।लाल चढण ने लाङली।।
जब हूई वार  हलकार।तब धरम मचायो धानडे।।
राजस्थान के वागड प्रदेश मे धानडा सिरदारों  के 3 ठिकाने है, भटवाडा ,राठडीया ,माकीया;और गुजरात मे 2 तसीया और जोटाणा ।
 
राठडिया के श्रीवीरजी के सुपुत्र ठा.भारथोजी धानडा को बाँसवाडा रावल विजेसिंहजी ने संवत 1949 आसाढ सुदी 11 को राठडिंया ग्राम जागीर मे दिया इन्हीं भारथो जी के वंश से ठाकुर जौवानसिंह  हुए'   ठाकुर जोवानसिंह जी कि अनुपस्थिति मे डूगंरपूर कि माँडव मीणा पाल ने हमला कर दिया ! 
तब ठाकुर के भतीजे गोपालसिंह ने वीरता से लड़ते हुए 180लोगों  को धूल चटाई व राठडीया कि रक्षाकरते हुए वीर गति को प्राप्त हुए !
राठडीया मे सदासिव हजुरि ने उपरोक्त घटना कि जानकारी ठाकुर को दी' ठाकुर ने प्रण लेते हुए डूगंरपूर कि माँडव व भोराई पाल को तोड़ कर 200 से  ज्यादा मीणा लोगों को 
मार कर राठडीया पुन: स्थापित किया !
तामृपत्र तथा प्रत्येक चिह्न  भी विद्यमान है। आज इन्ही ठाकुर जोवानसिंहजी के वंशज राठडीया ठिकाने के जागीरदार है ,और वह चारण कुल मे खानदान कहलाते है ।
 >और बात करे तो वागड के माखीया जागीर की ,श्री मौखमजी के सुपुत्र ठा.वीरसिंहजी धानडा को बाँसवाडा महारावल पृथ्वीसिंहजी ने सवंत 1804 चेत्र सुद 8 और शनिवार के दिन माखीया साँसण प्रदान किया।  
 >और बाँसवाडा जिले मे धानडा सिरदारो की चोखी साँसण जागीरी है भट्वाडा । श्री दयारामजी के सुपुत्र ठा.सरदारसिंहजी धानडा को बाँसवाडा नरेश रावल भवानीसिंहजी ने सवंत 1895 आसो सुद 10 को  भटवाडा साँसण प्रदान किया ।  
और गुजरात के ईडर प्रदेश मे धानडा सिरदारो का एक ठिकाना है तसीया,और मेहसाणा मे एक है  जोटाणा। तो ये रोचक जानकारी थी  देवजाती चारण कुल की एक शाख धानडा की ।  आशा है इस जानकारी से आप सब  को धानडा सिरदारो के बारे मे  कूछ एतीहासीक तथ्य जानने को मिले होंगे । 

भूल चूक हेतु क्षमा  

जय माताजी री

कुँ.जीगरसिंह सिंहढायच
ठी.थेरासणा

सिंहढायच के गोत्र प्रवरादी

🛡सिंहढायच शाखा के गोत्र प्रवरादी🛡

गोत्र  :- भांचलीया (भादा)
कुल ऋषि :- परमोरू
कुलदेवी :- माँ चालाराय
राज्य :- मारवाड़
कुल ब्राह्मण:- घांघीया
शाख के माँगणियात(याचक):-सावडे
उपशाखा की संख्या:-12
भाट :- राजोरा
घोड़ा:- श्याम कर्ण
तलवार :- रणतरे
प्रथम शासन जागीर :- मोघडा
कुल पुरुष:-नरसिंहजी

--जयपालसिंह थेरासणा

चारणो को "गढवी" क्यु कहा जाता है?

चारणो को "गढवीर" क्यू कहा गया ???

:- जब जब चारणो नै तलवार उठाई है तब तब इतिहास नै भी अपनी दिशा बदल दी है। जब कौई शत्रु लडनै आया और दुँबल राजा उससे मित्रता करनै का विचार लाता था तब चारण नै शौर्य सै भरपूर काव्य रचै है। उस काव्य को सुनकर कायर भी  तलवार पकड कर बखतर कस लेता था । राजा जब युद्ध मे लडनै जातै थै तब वो अपनै परिवार की और अपनै किल्ले की सुरक्षा अपनै अजीज और विश्वाशपात्र चारण को सौंपतै थै चारण अकेले पुरे कीले की सुरक्षा करतै करतै वीरगती प्राप्त होते थे । चारणौ की इसी शूरवीरता कै कारण उनको सन्मान कै साथ "गढवीर" (गढ कै वीर यौद्धा) बुलाया गया। गढवीर शब्द का इतिहास मै भी अमर स्थान है ।।

"गढ कै हम है वीर हमै बौलतै है 'गढवीर' "

जय मां आवड
जय मां करणी
जय हींगलाज माँ
🙏🏼🙏

गुरुवार, 25 मई 2017

चारणो के रीति रिवाज


राजपूताना के चारण और राजपुतो के रीति  रिवाज जिनकी जानकारी हमारे लिए  आवश्यक है।      
         
1.) अगर आप के पिता जी /दादोसा बिराज रहे है तो कोई भी शादी ,फंक्शन, मंदिर आदि में आप के कभी भी लम्बा तिलक और चावल नहीं लगेगा, सिर्फ एक छोटी टीकी लगेगी !!

2.) जब सिर पर साफा बंधा होता है तो तिलक करते समय पीछे हाथ नही रखा जाता, हां ,सर के पीछे हाथ तभी रखते है जब आप नंगे सर हो, तो सर ढकने के लिए हाथ रखें।

3.) पिता का पहना हुआ साफा , आप नहीं पहन सकते

4.) मटिया, गहरा हरा, नीला, सफेद ये शोक के साफे है

5.) खम्मा घणी  का असली मतलब है "माफ़ करना में आप के सामने बोलने की जुरत कर रहा हूं,  जिस का आज के युग में कोई मायने नहीं रहा गया है !!

6.) असल में खम्माघणी , दूसरे लोग राज्यसभा मे ठिकानेदार(जागीरदार) / राजा /महाराजा के सामने कुछ बोलने की आज्ञा मांगने के लिए use करते थे.

7.) ये सरासर गलत बात है की घणी खम्मा, खम्मा-घणी का उत्तर है, असल में दोनों का मतलब एक ही है !!

8)एक दूसरे को मिलने पर जय माताजी की बोलना ये पुरखों से चला आ रहा है ।

9.) पैर में कड़ा-लंगर, हाथी पर तोरण, नंगारा, निशान, ठिकाने का मोनो ये सब जागीरी का हिस्सा थे, हर कोई जागीरदार नहीं कर सकता था, स्टेट की तरफ से इनायत होते थे..!!

10.) मनवार का अनादर नहीं करना चाहिए, अगर आप नहीं भी पीते है तो भी मनवार के हाथ लगाके या हाथ में ले कर सर पर लगाके वापस दे दे, पीना जरुरी नहीं है , पर ना -नुकुर कर उसका अनादर न करे

11.) अमल घोलना, चिलम, हुक्का या दारू की मनवार, मकसद होता था, भाई, बंधु, भाईपे, रिश्तेदारों को एक जाजम पर लाना !!

12.)ढोली के ढोल को "अब बंद करो या ले जायो" नहीं कहा जाता है "पधराओ " कहते हैं।

13.) आज भी कई घरों में तलवार को म्यान से निकालने नहीं देते, क्योंकि तलवार की एक परंपरा है - अगर वो म्यान से बाहर आई तो या तो उनके खून लगेगा, या लोहे पर बजेगी, इसलिए आज भी कभी अगर तलवार म्यान से निकलते भी है तो उसको लोहे पर बजा कर ही फिर से म्यान में डालते है !!

14.) तोरण मारना इसलिए कहते है क्योकि तोरण एक राक्षश था, जिसने शिवजी के विवाह में बाधा डालने की कोशिश की थी और उसका शिवजी ने वध किया था

15.) ये कहना गलत है की माताजी के बलि चढाई, माताजी तो माँ है वो भला कैसे किसी प्राणी की बलि ले सकती है, दरअसल बलि माताजी के भेरू (शेर) के लिए चढ़ती है, उसको प्रसन्न करने के लिए.

*कुँ.जीगरसिंह थेरासणा*

शनिवार, 13 मई 2017

चारण कौन थे ?क्या थे ?


🔴 *चारण री बाता* 🔴
🔶  *चारण क्या थे?कौन थे ? (मध्य कालीन युग)*

अगर हम इतिहास मे एक द्रष्टि डाले तो पायेंगे की राजपूताना मे चारणो का इतिहास मे सदेव ही इतीहासीक योगदान रहा है । ये बहोत से राजघराणे के स्तम्भ रहे है । इन्हे समय समय पर अपनी वीरता एवम शौर्य के फल स्वरूप जागीरे प्राप्त हुई है ।
चारण राज्य मे  राजकवि ,उपदेशक एवम पथप्रद्शक होते थे । वह राजा के साथ युध्ध भूमि मे जाते थे एवम युध्ध मे राजा को उचित सलाह और धेर्य देते ,और अपनी वीरता युध्ध भूमि मे दिखाते थे ।वह राज्य के दार्शनिक ,राजकवि,रणभूमि के योद्धा और एक मित्र के रुप मे राज्य और राजा को सहयोग करते थे ,और राज्य की राजनीति मे भी उनका बड़ा योगदान रेहता था ।राजपूताना के राज्यों मे चारण एक  सर्वश्रेष्ठ,प्रभावशाली एवम महत्वपूर्ण व्यक्ति होते थे ।
जीवन स्तर : मध्य काल मे राजपूताना के चारण सभी प्रकार से सर्वश्रेष्ठ थे ।  राजघराने के राजकवि(मंत्री) और जागीरदार थे । उनके पास जागीरे थी उनसे जीवनयापन होता था ।

>राजपूताना से मिले कुरब कायदा -समान
चारणो को समय समय पर उनके शौर्यपूर्ण कार्य एवम बलिदान के एवज मे सन्न्मानीत किया जाता था ।जिनका विवरण इस प्रकार है :
1} लाख पसाव, 2} करोड़ पसाव ,3} उठण रो कुरब ,4} बेठण रो कुरब, 5}दोवडी ताजीम ,6} पत्र मे सोना 7}ठाकुर  8}जागीरदार

दरबार मे चारण  के बेठ्ने का स्थान छठा था ,सातवां स्थान राजपुरोहित का था । ये दो जातियाँ दोवडी ताजीम सरदारों मे ओहदेदार गिने जाते थे । चारण को दरबार मे आने  जाने  पर राज  दरबार  एवम राजकवि पदवी दोनो से अभी वादन होता था ।
चारण के कार्य :चारण राजा के प्रतिनिधि होते थे । चारण राजा को क़दम क़दम पर कार्य मे सहयोग करता था ।वह युद्ध मे बराबर भाग लेता और युध्धभूमि मे सबसे आगे खडा होता एवम शौर्य गान और  उत्साह से सेना व राजा को उत्साही करता और युद्ध भूमि मे अपनी वीरता दिखाते युद्ध करते । वह राजकवि के अतिरिक्त एक वीरयौद्धा और स्पष्टवक्ता होते थे । राजघराने की सुरक्षा उनका कर्तव्य था,राज्य के कोई आदेश अध्यादेश उनकी सहमती से होता था ।संकट समय पर राजपूत और राजपूत स्त्रीया  भी चारण के स्थान को सुरक्षित मान कर पनाह लेते थे ।
चारण कुल मे कई सारी देवियां हुई जो राजपूतो की कुलदेवीया है,ऐसी कोई राजपूत साख नही होंगी जिनकी कुलदेवी चारण न हो ।
देवलोक से आने से और कई  देवियां के जन्म से चारणो को (देवकुल) देवीपुत्र भी कहा जाता है । चारण कुल मे (काछेला समुदाय) मे देवियां हुई जो राजपूतों को राज्य प्राप्त करने मे मददरुप बने और राजपरिवार की कुलदेवियां हुई । और चारणो मे बहोत राजकवि ,वीरयोद्धा,स्पष्ट वक्ता हुए जो राजघराने के आधरस्तम्भ की तरह रहे । चारण का राजपूत से अटूट सम्बंध रहा है ।
अभीवादन :चारण अभिवादन "जय माताजी"से करते है,राजपूतो को जय माताजी कर अभीवादन करना चारण ने सिखाया है ।
>ठिकाणा व जागीरी: स्थिति - पुरातन समय में तो राजपुरोहित और चारण  राज्य के  सर्वोच्च एवं सर्वश्रेष्ठ अधिकारी होते थे  । मध्यकाल में युद्धो में भाग लेने, वीरगति पाने तथा उत्कृष्ठ एवं शौर्य पूर्ण कार्य कर मातृभूमि व स्वामिभक्ति निभाने वालो को अलग-अलग प्रकार की जागीर दी जाती थी । इसमें चारण ,राजपूत व  राजपुरोहित ये तीन जातियाँ मुख्य थी । प्रमुख ताजीमें निम्न थी -

1. दोवड़ी ताजीम
2. एकवड़ी ताजीम
3. आडा शासण जागीर
 (क) इडाणी परदे वाले
 (ख) बिना इडाणी परदे वाले
4. भोमिया डोलीदार
 (क) राजपूतो में भोमिया कहलाते
(ख) चारण  एवं राजपुरोहितो में डोलीदार कहलाते ।

राजपूत साधारण जागीरदार, पर चारण  व राजपुरोहित को सांसण (शुल्क माफ) जागदीरदार कहलाते थे।

रस्म रिवाज -
समस्त रस्मोरिवाज विवाह, गर्मी, तीज-त्यौहार, रहन-सहन, पहनावा इत्यादि राजपूतो व चारणो के समान ही है।

वर्तमान स्थिति :बदलते युग के थपेड़ो के बिच चारण की गौरवगाथा मात्र ऐतिहासिक घटनाओ पर रह गयी है । अल्प संख्यक समाज है राजस्थान ,गुजरात कुछ भाग मे,मध्यप्रदेश के कुछ भाग मे चारणो की संख्या है ।सरकारी नोकरी मे चारण को जाना ज्यादा पसंद है ।कुछ चारण निजी व्यवसाय एवम खेती पर निर्भर है । देश की तीनो सशस्त्र सेना एवम सुरक्षा कर्मियों आदि नोकरी करनी ज्यादा पसंद करते है । देश भक्त एवम वफादार है । आज भी कुछ कुछ चारण काव्य रचते है ।
उपसंहार - स्पष्ट है कि पुरातन एवं मध्यकाल में चारणो, राजपुरोहितो एवं राजपूतो का चोलीदामन का प्रगाढ़ रिश्ता रहा है। सांस्कृति दृष्टि (रीति-रिवाजो) से ये कभी भिन्न नहीं हो सकते । एक दूसरे के अभिन्न अंग की तरह है। इतिहास साक्षी है - पुरातन समय में  चारणों ने समय-समय पर राजपूतो को कर्तव्यपालन हेतु उत्साहित किया । उन्होने काव्य में विड़द का धन्यवाद दिया एवं त्रुटियों पर राजाओं को मुंह पर सत्य सुनाकर  पुनः मर्यादा एवं कर्तव्यपालन का बोध कराया । रणभूमि मे शौर्यता और वीरता दिखा कर  कई युध्ध मे जीत हासिल की । किन्तु समय के दबले करवटों के पश्चात् देश आजाद होने  के बाद ऐसा कुछ नहीं रहा एवं धीरे-धीरे मिटता गया ।
संदर्भ :
⚫प्राचीन भारतीय इतिहास -dr. वी.एस.भार्गव
⚫भारतीय संस्क्रुति का विकास क्रम-एम.एल माण्डोत
⚫राजपुरोहित जाती का का इतिहास -प्रहलादसिंह राजपुरोहित
⚫चारण की अस्मिता -लक्ष्मणसिंह पिंगलशी  चारण


उपरोक्त पुस्तकों का निचोड़ कर के एवम  अपनी मौलिकता और इससे अतिरिक्त अन्य शब्द सामग्री का भी प्रयोग किया है ।आशा है समाज के प्रत्येक वर्ग को और अन्य समाज को भी  चारण ज्ञाति की रुचिकर एवं नई जानकारी  प्राप्त होगी ।
          *आभर*
     *"जय माताजी री"*
*कुँ.जीगरसिंह चारण (सिंहढायच)*
*ठी.थेरासणा (ईडर)*

सोमवार, 16 जनवरी 2017

दानेश्वरी चारण

मेवाड के राजकवि और मारवाड के मोघडा गाँव के श्री ठा.सा.हरीसिंहजी अचणदानजी सिंहढायच को मेवाड के राणा जगतसिंहजी(प्रथम)ने लाखपसाव से सन्मानीत कीया था| तब उसी समय कविराज ने दरबार में ब्राह्मण, भाट,राजकमँचारीओ को दे दीया था|
>यही कविराज को अकबर के नो रत्नों मे से एक राजा टोडरमलजी ने उदयपुर राज्य कविराज के चरणों मे अर्पित कीया था(उस समय उदयपुर अकबर के क्बजे मे था)  पर कविराज ने राज्य का अस्वीकार कीया और वापस कीया| पर टोडरमलजी के अती आग्रहवश हो कर कविराज ने कई गांव ब्राह्मण को दान मे दे दीये थे| तब का एक दोहा है:
 "दान पाये दोनो बढ़े, का हरी का हरनाथ,
उन पढ लंबे पद दीये, ईन बन लंबे हाथ"|
दानेश्वरी चारण >10.3
 पृ.222 >चारण नी अस्मीता

 Type By:कुँ.जीगरसिंह सिंहढायच

थेरासणा गाँव का इतिहास(ठीकाना)

*थेरासणा गाँव का इतिहास (ठीकाना)*
🗡🗡

ई.स.1745 में
मेवाड की राजधानी उदयपुर के सींहासन पर महाराणा जगतसिंहजी बीराजमान थे। उस समय उदयपुर के राजकवि  ठाकुर गोपालदासजी सिंहढायच थे। बडे ही शुरविर, वीध्वान और सत्यवक्ता चारण थे।  कुम्भलगढ से थोडी दुरी पर एक ठीकाना मण्डा के वह ठाकुर थे।

मेवाड की दक्षीणी सीमा पर ईडर राज्य स्थित है। वह जोधपुर (मारवाड) के राठोडो के अंतरगत राज्य था । राजा राव कल्याणमलजी ईडर की गद्दी पर बीराजमान थे।
ईडर राज्य मे एक महानपरोपकारी चारण सांयाजी झुला राज्य के राजकवि थे ।ईडर दरबार के ख्यातनाम व्यक्तित्व थे, पुरे भारतवर्ष मे उनकी ख्याती थी। सायांजी ईडर से उतरदीशा मे श्री भवनाथजी मंदीर के पास जागीर गाँव कुवावा के स्वामी थे | वे बहोत बडे वीध्वान संत और कृष्ण भक्त थे। ईडर राज्य के महापुरुष सांयाजी को सभी राजनैतीक कार्य कल्याणमलजी पुछ कर करते थे। कल्याणमलजी सायांजी को अपने आदर्श मानते थे।

  एक दीन सायांजी अपने स्वपन के अनुसार जलसमाधी लेने हेतु व्रजभुमी जाने को रवाना हुए, जब राव कल्याणमलजी को ये बात की खबर हुई की सांयाजी मुझसे मीले बगैर जल समाधी को सीधा रहे है, तभी कल्याणमलजी सांयाजी को अंतीम बार भेट करने हेतु ईडर से ब्रज को रवाना हुए | राजा को रास्ते मे ही खबर मीली की सांयाजी ने नदी मे जल समाधी ले ली, और देवगती को प्राप्त हुए है। राजा कल्याणमलजी के पैरो तले जमीन खीसक गई ! उनकी सांयाजी से आखरी बार मीलने की ईच्छा अधुरी रहे गई । वो बडे ही नीराश होकर ईडर लोटने को रवाना हुऐ।
रास्ते मे राव कल्याणमलजी का ननीहाल उदयपुर आया वे उदयपुर पहोंचे | उन्होने श्री सांयाजी झुला की सारी बात महाराणा जगतसिंह को बताई, कहा की एक महान सीतारे की ईडर को खोट हुई। मुझे राज्य के लीए एक कुशळ और विध्वान चारण की आवश्कयता है। जगतसिंह ने बडा ही खेद व्यकत कीया और उनके खास मित्र ,समर्थ वक्ता और वीध्वान
उदयपुर के राजकवि ठाकुर गोपालदासजी सिंहढायच को राजा राव कल्याणमलजी के राज्य ईडर जाने का नीर्देश ईस शर्त पे कीया की ,ईडर मे सबसे ज्यादा आय वाले ठीकाने की जागीर गोपालदासजी को प्रदान की जाए | राव कल्याणमलजी ने शर्त मंजुर की।

ठाकुर गोपालदासजी राव कल्याणमलजी के साथ ईडर पहुचे। राजा कल्याणमलजी ने बडे मान सन्मान के साथ गोपालदासजी को ईडर के राजकवि पद पर सुशोभीत कर अपने दरबार मे आदर पूर्वक स्थान दीया। राज्य के कुरब कायदे, लाख पसाव और *थेरासणा*,वडाली ,रामपुरा एवं थूरावास ये चार गाँव की जागीरी एनायत की।उस समय पूरी ईडर रियासत मे सबसे ज्यादा आवक /आय (25,000-30,000/मास) इस चार गाँव की थी |

 गोपालदासजी के साथ
 एक दुसरा चारण परीवार भी मेवाड से ईडर आया था, उस चारण को ठाकुर गोपालदासजी ने थुरावास गांव की जागीरी प्रदान की।

कुछ सालो के बाद ठाकुर गोपालदासजी का स्वर्गवास हुआ।
एकदीन उन्ही के पुत्र ठाकुर राजसिंहजी ईडर की शाही सवारी मे दरबारगढ़ जा रहे थे । सवारी मेबहोत से सीपाही और दरबारी थे, तब उसी वक़्त वडाली के एक जैन व्यापारी ने मोका देख कर कहा," ठाकुर साब अपना हिसाब कब चुकता करोगे" राजसिंहजी को ईस बात से बहोत गुस्सा आया, वो दूसरे ही दिन जैन के पास गये और कहा की " चार गांव के ठाकुर को दरबार सवारी मे एसा केह ने की तुमारी हींमत कैसे हुई " ईतना केह कर कटार निकाल कर जैन की हत्या कर दी ।

 जैन के परिवार वाले ईडर दरबार मे बदला लेने पहुँचे। राजा को सारी बात बताई, राजा ठाकुर साब को कुछ कर तो नही सकते ,उनके मीत्र ,राजकवि , ठाकुर और दरबारी थे ,तो राज्य के नीयम और न्याय के तौर पर राजा ने वडाली और रामपुर की जागीर खाल्सा कर दी।

 गोपालदासजी ने जमीन के अंदर एक चार मंजिल की कोतरणी युक्त बावडीया का नीर्माण करवाया था ,जो आज रामपुरा मे स्थीत है,और उसी बावडी मे श्री विरसिंहजी बावजी की दीवार के अंदर मुर्ती भी वीध्यमान है।

फीलहाल आज ठाकुर गोपालदासजी सिंहढायच के वंशज थेरासणा के जागीरदार है | और वह चारणकुल में खानदान कहलाते है ।

*संदर्भ >*
*फार्बस रासमाला*
*- एलेकजांडर फार्बस*
*राव वीरमदेव*
*पृष्ठ:677-78*


*जयपाल सिंह (जीगर बन्ना) थेरासणा*

सिंहढायचो का इतिहास

*सिंहढायचों का इतिहास*
🦁🗡


एकबार जोधपुर रियासत के राजा नाहङराव पडीहार  कहीं से अकेले ही आ रहे थे अरावली की पहाङियो से होते हुवै । गर्मी का मौसम भरी दोपहरी का समय तेज तावङो तपती घरा लाय रा थपिङा बावै । राजा जी नै रास्ते मे जोरदार प्यास लग गयी । दुर दुर तक पानी नहीं । गलो होठ सागेङा सुकग्या अंतस तकातक सुक गयो । आथङता 2 राजा जी डुंगरा री ढाल सुं नीचे आया उठै गाय रो खूर सुं खाडो पङियोङो जिणमे 2 - 4 चलू बरसात रो पाणी ठेरियोङो हो प्यासा मरतां थका नी आव देखयो नी ताव चलू भरनै खाताक सुङका लिया अर पानी पिवतां ई राजा रै हाथां मे कोढ (कुस्ट रोग ) जकी झङगी । अर सरीर मे एकाएक ताजगी आयगी । राजा देखयो आ कोई चमतकारी तपो भूमि है ।अठै सरोवर खुदाणो चहिजै ।
राजा बी जगां सरोवर खुदाई सुरु करावै पण ज्यां दिन रा खोदे पण रात वहैतां ई पाछो पैली हतो जङो व्है जावै । अर्थात बुरीज जावै काफी प्रयास करनै के बावजुद भी तालाब खोद नही पाते फिर राज विद्वानो गुणी व्यक्ति यों से।पुछवाता है ऐसा क्यो हो रहा हैं । तब बात सामनै आती हैं कि पैहले यहां बहुत बङा तालाब था इसके किनारै एक तपस्वी साधु का यहां आश्रमं था जिसकी बहुत सी गांये थी । अरावली की पहाङियो में शेर रहते थे वे तालाब में पानी पिने आते थे और कई बार ऋषिं की गायो को खा जाते थे इस कारण ऋषि इस तालाब को श्राप देकर यहां से चला जाता है और श्राप देता हैं कि इस तालाब में पानी नहीं ठेहरेगा । इस कारण ऐसा होता हैं पर राजा नाहङराव नै तो तय कर लिया था कि तालाब तो खुदाना ही हैं ।तब बङे बङे पंडित  विद्वानों से पता किया की इस श्राप का तोङ क्या है तब किसी ब्राह्मण देवता ने बताया जिसने सैकङो शेर मारे हुवै हो उसी के हाथो से तलाब खुदाई की नींव रखे तभी कार्य सम्भव हो पायेगा। तब यह समस्या आई की सैकङो शेर कौन मारे ऐसा आदमी कहा मिलेगा तब पता करते करते नरसिंहजी भाचलिया का नाम सामने आया पर उस समय वह गुजरात के गिर कि तलहटी में {जाखेङा गांव_दयालदास री ख्यात}और {चारण बिजाणंद सिंहढायच सैणी चारण री वात मे गुजरात रौ भाछली गांव भी बतावे} थे। नरसिंह जी के  पिता को शेर नै मार दिया था। (नरसिंह जी बहोत तेज मगज के थे)
जिस कारण उनको शेरो पर गुस्सा आया और उसी वक्त जल लेकर प्रण ले लिया की जब तक यहा के सारे शेरो को नही मार दु तब तक अन्न मुंडे में कोनी लुं  इस तरह वह रोज शेर को मारकर ही भोजन करते थे उन्होने सैकङो शेर मारै हुवै थे। नाहङराव  उनको  आग्रह कर  अजमेर पुस्कर ले आये और उस के बाद पुस्कर तालाब की खुदाई आरम्भ की नरसिंह भाचलिया के पुस्करणा ब्राह्मणो ने मिल कर तालब खोदा । नरसिंहजी को नाहङराव ने पेहला  मोगङा गांव जागीरी में दिया।सैकङो शेर मारनै के कारण नाहड़राव ने  नरसिंहजी भाचलिया को सिंहढायक की उपाधी दी।
(सिंह+ढायक) {ढानै वाला,मारने वाला,पाङनै वाला} सिंहढायक से अपभ्रंस में  सिंहढायच हो गया) मोगङा से ही अनेक राजाओ से अनेक जागीरे प्राप्त की।
 सिंहढायच जोधपुर,बीकानेर, मेवाङ,जयपुर, ईडर ,नरसिंहगढ(मध्य प्रदेश)जेसे स्टेटो मे राजघराने के मंत्री सदस्य और राजकवि पद पर थे ।सिंहढायचो मॆ कई बड़े बड़े शूरवीर,विध्वान और कविराज हो गये ।

*जीगर बन्ना थेरासणा*