⚔ *क्षत्रिय "चारण"* ⚔
वैसे तो चारण देवलोक मे रहने वाली देवजाती थी उनकी यह बात का प्रमाण हमे रामायण,भागवतगीता,गरुडपुराण,गणेश पुराण,ब्रह्मा पुराण,नरसिंहपुराण,वीष्णुपुराण,शिवमहापुराण,जैसे महान प्राचीन पवीत्र गंथ्रो मे देखने को मीलता है।पृथु राजा द्वारा चारण देवलोक से पृथ्वी पर आये और पृथु राजा ने उन्हे अपने दसोंदी बनाकर गढपति बनाया,दरबारी बनाया और कुछ चारण रुषी होकर हीमालय मे जा बसे।
परंतु मनुष्यलोक के चार वर्णो मे (ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्व,शुद्र)चारण को गीना जाय तो वो हे क्षत्रीय वर्ण।अनादी प्राचीन काल से ही माँ भगवती सती हींगलाज के आदेश अनुसार चारण-राजपूत सनातन संबध चलता आया है,नागवंशी क्षत्रीयो का तो चारणो के साथ मामा भांजे का संबध है ,ईस बात का ईतीहास प्रमाण देता है। चारण उभयकर्मी होने पर भी मूल रुप से क्षत्रीय कर्म प्रधान होने से क्षत्रीय जाती कहलाती है , फलत यह पुर्ण रुप से क्षत्रीय वर्ण से है ।क्षत्रीय जाती के तराजु मे यदी राजपूत के साथ चारण को तोला जाये तो कीसी भी पलडे मे रख दो ईनका समान्तर अस्तित्व रहेगा।
चारणो ने कलम के साथ साथ करवाल(तलवार) धारण कर अपना हस्तकौशल दीखाया है,रणबांकुरे चारणो के युद्ध नैपुण्य के द्रश्य ईतीहास मे अगणीत देखने को मीलते है। चारणविरो ने आत्मरक्षा,स्वाभीमान और मातृभुमी के लीए अपनी जान हानी का न सोच कर तलवारो को रक्तघुंट पीलाते क्षत्रीय धर्म नीभाया है।
क्षात्रवट को संभाल ने मे राजपूताना के ईतीहास मे कीसी का मुख्य भाग है तो उसका मान भी चारणो को ही जाता है।
क्षत्रित्व का पाठ पढानेवाला चारण कीतना विर होगा?यह बात सहज ही सबके मस्तीस्क मे घुमती है,तब इस प्रश्न का उतर जानने के लीए (राजपूताना के) चारणो का ईतीहास व साहीत्य जानना आवश्यक है,ताकी चारण से अनभीग्य लोग भी ईसे जान कर अपने भ्रम से मुक्त हो सके।
स्पष्ट है की पुरातन एंव मध्यकाल मे चारण राजपूत का चोलीदामन का प्रगाढ रिश्ता रहा है सांस्कृतीक द्रष्टी से(रितीरिवाज) से ये कभी भीन्न नही हो सकते एक दुसरे के अभिन्न अंग है।
चारणो और राजपूतो मे आचार-विचार,खान-पान,पहेरवेश,रीतिरिवाज,डीलडोल,रेहणी-केहणी सब कुछ ऐक है।
चारणो के एक पुराने महान संघठन "अखील भारतीय चारण महासभा" के प्रथम अधीवेशन जो पुष्कर मे हुआ था।
ई.स.1921 कार्तीक शुक्ल त्रयोदशी से पूर्णीमा तक ये कार्यक्रम चला था। उसमे हाजर सभ्यो के नाम:
>सम्मेलन के प्रधान संयोजक:चारण कुल भुषण श्रीमान ठाकुर साहेब श्री केशरीसिंहजी बारहठ
>कोटा कविराज ठाकुर साब श्री दुर्गासिंहजी महीयारीया,>पोपावास के ठाकुर सा.मोतिसिंहजी कीनिया,>भांणपुर के ठाकुर सा श्री भवानीसिंहजी आढा
>स्वागत अध्यक्ष:मोही ठाकुर साब श्री डुंगरसिंहजी भाटी
>प्रथमदीन के सभापति:श्रीमान ठाकुर साब शंकरसिंहजी दुरसावत
>दुसरे दीन के सभापति:ठा.सा. दुर्गासिंहजी महीयारीया
>तृतीय दीन के सभापति:श्रीमान राजराजेश्वर महाराजा बलभद्रसिंहजी हाडा
>सम्मेलन के प्रधानमन्त्री:मेंगटीया नरेश ठाकुर ईश्वरदानजी आशीया
ईस सम्मेलन मे बडे बडे राजपूत सिरदार और बडे बडे चारण सिरदारो के बीच चारणो को क्षत्रीय घोषीत कीया गया था, चारण क्षत्रीय वर्णस्थ तो थे ही पर लोगो की अलग अलग भ्रांतीयो की वजह से राजराजेश्वर महाराजा बलभद्रसिंहजी के नेतृत्व मे ये फैसला लीया गया था।समजदार वर्ग को तो पता ही था की चारण कौन हैैैै, पर नासमजो को ये पता चले ईस लीए।
चारण युद्ध भुमी मे सबसे आगे हरावल टुकडी मे रहते थे ईस टुकडी मे राजपूत भी होते थे । चारण युद्धभुमी मे तलवार को रक्त से नहलाकर,कई दुशमनो को काट कर विरगति को प्राप्त होते थे।वे वीकट परिस्थीती मे हमेशा लडने को तैयार रहते थे।
आज भी चारण देश की सेवा मे तिनो खांपो मे तैनात है, उनको आज भी सैना मे जाना ज्यादा पसंद है।
>संदर्भ:-
*1 चारण कुल प्रकाश-ठा.कृष्णसिंह बारहठ*
*2 चारण नी अस्मिता-श्री लक्ष्मणसिंह गढवी*
*3 चारण दिगदर्शन-ठा.शंकरसिंह आशीया*
*4 चारणो की स्वातंत्रता लीपसा-डो.सोनकुंवर हाडा*
*जीगर बन्ना थेरासणा*
*विर चारण महा सेना ग्रुप*⚔
वैसे तो चारण देवलोक मे रहने वाली देवजाती थी उनकी यह बात का प्रमाण हमे रामायण,भागवतगीता,गरुडपुराण,गणेश पुराण,ब्रह्मा पुराण,नरसिंहपुराण,वीष्णुपुराण,शिवमहापुराण,जैसे महान प्राचीन पवीत्र गंथ्रो मे देखने को मीलता है।पृथु राजा द्वारा चारण देवलोक से पृथ्वी पर आये और पृथु राजा ने उन्हे अपने दसोंदी बनाकर गढपति बनाया,दरबारी बनाया और कुछ चारण रुषी होकर हीमालय मे जा बसे।
परंतु मनुष्यलोक के चार वर्णो मे (ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्व,शुद्र)चारण को गीना जाय तो वो हे क्षत्रीय वर्ण।अनादी प्राचीन काल से ही माँ भगवती सती हींगलाज के आदेश अनुसार चारण-राजपूत सनातन संबध चलता आया है,नागवंशी क्षत्रीयो का तो चारणो के साथ मामा भांजे का संबध है ,ईस बात का ईतीहास प्रमाण देता है। चारण उभयकर्मी होने पर भी मूल रुप से क्षत्रीय कर्म प्रधान होने से क्षत्रीय जाती कहलाती है , फलत यह पुर्ण रुप से क्षत्रीय वर्ण से है ।क्षत्रीय जाती के तराजु मे यदी राजपूत के साथ चारण को तोला जाये तो कीसी भी पलडे मे रख दो ईनका समान्तर अस्तित्व रहेगा।
चारणो ने कलम के साथ साथ करवाल(तलवार) धारण कर अपना हस्तकौशल दीखाया है,रणबांकुरे चारणो के युद्ध नैपुण्य के द्रश्य ईतीहास मे अगणीत देखने को मीलते है। चारणविरो ने आत्मरक्षा,स्वाभीमान और मातृभुमी के लीए अपनी जान हानी का न सोच कर तलवारो को रक्तघुंट पीलाते क्षत्रीय धर्म नीभाया है।
क्षात्रवट को संभाल ने मे राजपूताना के ईतीहास मे कीसी का मुख्य भाग है तो उसका मान भी चारणो को ही जाता है।
क्षत्रित्व का पाठ पढानेवाला चारण कीतना विर होगा?यह बात सहज ही सबके मस्तीस्क मे घुमती है,तब इस प्रश्न का उतर जानने के लीए (राजपूताना के) चारणो का ईतीहास व साहीत्य जानना आवश्यक है,ताकी चारण से अनभीग्य लोग भी ईसे जान कर अपने भ्रम से मुक्त हो सके।
स्पष्ट है की पुरातन एंव मध्यकाल मे चारण राजपूत का चोलीदामन का प्रगाढ रिश्ता रहा है सांस्कृतीक द्रष्टी से(रितीरिवाज) से ये कभी भीन्न नही हो सकते एक दुसरे के अभिन्न अंग है।
चारणो और राजपूतो मे आचार-विचार,खान-पान,पहेरवेश,रीतिरिवाज,डीलडोल,रेहणी-केहणी सब कुछ ऐक है।
चारणो के एक पुराने महान संघठन "अखील भारतीय चारण महासभा" के प्रथम अधीवेशन जो पुष्कर मे हुआ था।
ई.स.1921 कार्तीक शुक्ल त्रयोदशी से पूर्णीमा तक ये कार्यक्रम चला था। उसमे हाजर सभ्यो के नाम:
>सम्मेलन के प्रधान संयोजक:चारण कुल भुषण श्रीमान ठाकुर साहेब श्री केशरीसिंहजी बारहठ
>कोटा कविराज ठाकुर साब श्री दुर्गासिंहजी महीयारीया,>पोपावास के ठाकुर सा.मोतिसिंहजी कीनिया,>भांणपुर के ठाकुर सा श्री भवानीसिंहजी आढा
>स्वागत अध्यक्ष:मोही ठाकुर साब श्री डुंगरसिंहजी भाटी
>प्रथमदीन के सभापति:श्रीमान ठाकुर साब शंकरसिंहजी दुरसावत
>दुसरे दीन के सभापति:ठा.सा. दुर्गासिंहजी महीयारीया
>तृतीय दीन के सभापति:श्रीमान राजराजेश्वर महाराजा बलभद्रसिंहजी हाडा
>सम्मेलन के प्रधानमन्त्री:मेंगटीया नरेश ठाकुर ईश्वरदानजी आशीया
ईस सम्मेलन मे बडे बडे राजपूत सिरदार और बडे बडे चारण सिरदारो के बीच चारणो को क्षत्रीय घोषीत कीया गया था, चारण क्षत्रीय वर्णस्थ तो थे ही पर लोगो की अलग अलग भ्रांतीयो की वजह से राजराजेश्वर महाराजा बलभद्रसिंहजी के नेतृत्व मे ये फैसला लीया गया था।समजदार वर्ग को तो पता ही था की चारण कौन हैैैै, पर नासमजो को ये पता चले ईस लीए।
चारण युद्ध भुमी मे सबसे आगे हरावल टुकडी मे रहते थे ईस टुकडी मे राजपूत भी होते थे । चारण युद्धभुमी मे तलवार को रक्त से नहलाकर,कई दुशमनो को काट कर विरगति को प्राप्त होते थे।वे वीकट परिस्थीती मे हमेशा लडने को तैयार रहते थे।
आज भी चारण देश की सेवा मे तिनो खांपो मे तैनात है, उनको आज भी सैना मे जाना ज्यादा पसंद है।
>संदर्भ:-
*1 चारण कुल प्रकाश-ठा.कृष्णसिंह बारहठ*
*2 चारण नी अस्मिता-श्री लक्ष्मणसिंह गढवी*
*3 चारण दिगदर्शन-ठा.शंकरसिंह आशीया*
*4 चारणो की स्वातंत्रता लीपसा-डो.सोनकुंवर हाडा*
*जीगर बन्ना थेरासणा*
*विर चारण महा सेना ग्रुप*⚔
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