क्षत्रिय चारण

क्षत्रिय चारण
क्षत्रिय चारण

रविवार, 24 दिसंबर 2017

सांयावत झुला

चारणो की वरसडा शाखा मे एक महापुरुष हुए जीनका नाम ठाकुर आल्हा जी वरसडा। आल्हा जी को कच्छ के शासक ने एक बडा सा झुले पर बैठा सोने का हाथी  भेंट कर दरबार मे सन्मान दीया। तब से वे झुला कहलाए। ठाकुर आल्हा जी झुला को गुजरात के महान शासक सिध्धराज जयसिंह ने उनकी विध्वानता की एवज मे लीलछा सहीत 12 ग्राम का पट्टा जागीर मे दीया। आल्हाजी की वंश परंपरा मे विक्रम संवत 1632 भाद्रपद विद नवमी को जागीर ग्राम लीलछा में स्वामी दास जी के घर  महात्मा भक्त कवि श्री सांयाजी झुला का जन्म हुआ । उनके भाई का नाम भांयाजी था । सांयाजी की संतान सांयावत झुला कहलाये और भांयाजी की संतान भांयावत झुला कहलाये।

नागदमण और रुक्मणीहरण नामक दो महान ग्रंथ के रचियता सांयाजी ईडर के राज दरबारी कवी थे। 

 महात्मा सांयाजी अनन्य कृष्ण भक्त थे।
 

सांयाजी झुला कुवावा के जागीरदार थे। राव कल्याणमलजी ने विक्रम संवत 1661 मे सायांजी झुला को 2 हाथी और लाखपसाव सहीत आलीशान कुवावा ग्राम जागीरी मे दीया। सांयाजी को 8 -घोडे , 6 -हाथी, और उठण / बेठण रो कुरब की ताजीम के सन्मान ईडर दरबार से एनायत थे।  सांयाजी को बीकानेर राजा रायसिंह जी ने लाखपसाव और 2 हाथी,जोधपुर राजा गजसिंह जी ने 13 शेर सोने का थाल,एवं लाखपसाव और ईडर से 6 बार लाख पसाव का सन्मान प्राप्त हुआ था । सांयाजी ने अपनी जागीर कुवावा में गोपीनाथ मंदिर , मंठीवाला कोट, किला(गढ) तथा बावड़ियां बनवाई थी ।  कुवावा के कीले मे उनका निवासस्थान(खन्डेर अवस्था मे) आज भी विध्यमान है  ।  ईडर रीयासत मे मुडेटी के ठाकुर ने अंग्रेजो से बचने के लीए ईस कीले मे शरण ली थी।और सांयावतो ने उनकी रक्षा कर अंग्रेजो से उनका बचाव कीया था।ईस अहेसान को आज तक मुडेटी वाले मानते है।

आज सांयाजी झुला के वंशज कुवावा के जागीरदार है और उनकी दया से कुवावा मे बहोत समृध्धी है।

कुछ सायावत झुला वागड प्रदेश (राजस्थान)से जुड़े हुए थे तो उनको वागड मे जागीरी प्रदान हुई । वे कुवावा से वहाँ जा बसे,आज वागड(राजस्थान)मे साँयावत झुला के
नरणिया,मकनपूरा,
माकोद,गामडा,चूंडावाडा,ठिकाने है।
जीवन के अन्तिम वर्षों में ब्रजभूमि जाते वक्त मार्ग में श्रीनाथद्वारा में श्रीनाथ दर्शन करने गये। वहां इन्होंने तेर सेर सोने का थाल प्रभु के चरणों में धरा था। जो आज भी विद्यमान है। उस दिन से आज तक वहां तीन बार आवाज पड़ती है “जो कोई सांयावत झूला हो वो प्रसाद ले जावें”।
मृत्यु के अंतिम दिन मथुरा में एक हजार गाये ब्राह्मणों को दान दी तथा हजारों ब्राह्मण गरीबों को भोजन करवाकर हाथ जोड़कर श्री कृष्णचंद जी की जय कर इन्होंने महाप्रयाण किया।

एक समय शाम को सांयाजी ईडर नरेश राव कल्याणमल जी की कचहरी में बेठे थे अचानक सांयाजी स्थिर हो गए और दोनों हाथों को जोर-जोर से रगड़ने लगे। सांयाजी की इस विचित्र क्रिया को देख राजा सहित सभा अचंभित रह गयी। थोड़े समय पश्चात सांयाजी हाथ रगड़ते बंद हुए और दोनों हाथो को अलग किये तो दोनों हाथ काले हो गए थे व हाथो में छाले हो गए थे। इन हाथो को देखकर राजा और प्रजा और ज्यादा अचंभित हुए। राणा जी से रहा नहीं गया तो सांयाजी से पूछा कि आप एक घडी तक स्तब्ध होकर क्या कर रहे थे जिससे आपकी हथेलियां काली पड गई और छाले पड गए, कृपा कर कविराज हमें बतावे।

तब सांयाजी बोले हे रावजी इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं, द्वारिका में श्री रणछोड राय की आरती उतारते समय पुजारी के हाथ में पकड़ी आरती की बाती से गिरे तिनके के कारण रणछोड राय के वाघो (कपड़ो) में आग लग गई तो इस घटना से मुझ सेवक को दृष्टीगोचर होने से दोनों हाथो से रगड़ कर आग बुझाने से मेरे हाथ काले हुए और छाले पड़े।

इस वक्तव्य पर राणाजी को विश्वास नहीं हुआ तो दुसरे ही दिन अपने विश्वासपात्र राठोड चांदाजी को इस घटना की सत्यता का पता लगाने के लिए द्वारिका भेजा। चांदाजी ने द्वारिका पहुंचते ही भगवान के दर्शन किये और जिस काम से आये उसका पता लगाने हेतु पुजारी से मिले और पूछा कि पुजारी जी गत मार्गशीर्ष मास की सुदी ग्यारस की शाम को रणछोड राय जी के मंदिर में कोई घटना घटी? तब पुजारी बोला में तो क्या पूरा शहर जानता हे कि आरती की बाती से गिरे तिनके के कारण रणछोड राय को नए धारण करवाए कपड़ो में आग लग गई और उस आग को सांयाजी ने अन्दर आकर बुझाई थी।

यह सुनकर चांदोजी बोले क्या उस दिन सांयाजी यंहा थे? तब गुगलिया महाराज बोले आश्चर्य क्यों कर रहे हो उस दिन सांयाजी यहाँ थे इतना ही नहीं वो तो संध्या आरती समय हमेशा यहाँ हाजिर होते हें।

यह बात सुनकर चांदोजी को और ज्यादा आश्चर्य हुआ कि ईडर की सभा में बैठकर दुसरे रूप में आग बुझाई वो तो ठीक हे मगर हमेशा यहाँ हाजिर होते हे यह तो नई घटना हुई।

शाम को आरती का समय हुआ झालरों की आवाज होने लगी चांदाजी आडी-तिरछी नजरें घुमाने लगे कि आज देखता हूँ सांयाजी को, इतने में द्वारकाधीश के द्वार की साख के पीछे सोने की छड़ी पकडे सांयाजी को खड़े देखा।

आरती पूरी हुई, सांयाजी ने सोने की जारी द्वारकाधीश के सामने रखी रणछोड़जी ने अपने हाथ लंबे कर जारी मे से जलपान किया। यह प्रत्यक्ष प्रमाण देख चांदोजी सत्य मानने लगे की ईडर में बैठे हुए सांयाजी ने ठाकुरजी के जलते हुए वाघे बुझाए थे।

एक साथ दो जगह सांयाजी की उपस्तिथि का वर्णन चांदाजी से सुनकर राव कल्याण ने उठकर सांयाजी के पांव पकड़ लिए।

धन्य हे चारण समाज जिसमे ईश्वर स्वरुपा साँयाजी ने जन्म लिया।


-जयपालसिंह (जीगर बऩ्ना)सिंहढायच ठि.थेरासणा

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें