क्षत्रिय चारण

क्षत्रिय चारण
क्षत्रिय चारण

रविवार, 29 जुलाई 2018

THIKANA - THERASANA JAGIR👑

THERASANA (JAGIR)


DYNASTY - CHARAN
CLAN - SINHDHAYACH
SUB CLAN - GOPALSINGHOT
VILLAGES - 4
STATE -  IDAR,GUJARAT
TITLE - THAKUR
REVENUE - INR 30,000
AREA - 93.74 km2
HINDI NAME - थेरासणा
FOUNDED BY - THAKUR GOPALSINGH JI
GRANTED BY - RATHOD RAO KALYANMALJI OF IDAR PRINCELY STATE

*>Thakur Gopalsingh ji Sinhdhaych*

 He was the first ruler (Thakur) of "Therasana" Jagir which included 4 villages.

  King of idar Once after demise of heaven Mahatma Sanyaji was in greif and sorrow because Sanyaji was a special gem of state court ministers and king of idar.
King Kalyanmal needed  a good soldier and literate "Charan" in the  place of Sanyaji for governing the idar state. King of Mewar got to know the whole thing on the visit of idar king to court of mewar .
On realising the pain and sorrow of the king he decided that Special court Gopalsingh Sinhdhaych he was back then a warrior and a great literate would be sent to idar by agreeing on specific terms.
King kalyanmal decided to give the  highest income's Jagir in state of 4 villages ,double tazim's nobel , 2 elephants, 12 horses were anchored in leg and accustomed to thakur gopal singh.

Many Thakur's and Jagirdar's of Therasna in court of idar Dynasty has served in the form of their ministers and counsellors for many years.

*-kr.jaipal singh Therasna*

reference-
- *furbus rasmala*
- *rao ji's bahi*

चारण हुँ मे

*चारण हूँ मैं*

*ले.पद्मश्री ठाकुर सूर्यदेवसिंह जी पालावत*

इतिहासों ने पढ़ा,
रसों ने जिसको गाया
तलवारों की छौहों ने,
जिसको दुलराया,
वही कलम का धनी,
ज्ञान का कारण हूँ मैं||
चारण हूँ मैं||

शिव से लेकर शक्ति,
शक्ति का विश्वासी हूँ|
महाशक्ति में विश्वासों की
मैं गंगा हूँ, मैं काशी हूँ|
पूजित हिंगलाज व चावंड
स्थापित करणी माता आवड़
विदित गिरवरा, बैचर बरवड़,
खोडियार कामख्या तेमड़
इन्दर, सायर, सोनल, देवल
सैणी राजू बट्ट अर बल्लर|
महम्माय का कृत कृतज्ञ हूँ|
चरण धूल हूँ पुण्यनमन हूँ,
बांकीदास, उम्मेद, मुरारि,
सावल, दुरसा, जाड़ा, लखा|
लंघी काना सायां झूला
पिंगल हरदा कागा दूल्हा|
सूर्यमल बारू वीरों सा,
रचना, साहस और शौर्य की
त्रिवेणी का झरना हूँ मैं|
प्राप्त अधिकृत अधिकारों के
विरोध का धरना हूँ मैं|
जोरावर प्रताप केसरी,
तिल तिल विगलित तदापि प्रञ्चलित
अमर क्रान्ति का कर्ता हूँ मैं|
मारवाड़ की बुद्धि शिरा विञ्जी लालस सी
उज्ज्वल व ब्रदी गाडण सी|
फैली ज्ञान प्रखरता हूँ मैं|
मैं श्रद्धा का तीर्थ, आस्था का हूँ मंदिर,
रहा राज्य चाणक्य, सभा श्रृंगार,
सनातन धारण हूँ मैं|
भाषा पंडित प्रवण स्नेह का श्रावण हूँ मैं||
चारण हूँ मैं||
चारण हुूँ मैं।

अति अतीत के स्मरित विस्मरित,
घटनाओं का एकल लेखक|
रण प्रांगण के घोर युद्ध का,
गर्जक तर्जक अंकक मापक|
समय समय से लिखी जा रही,
विविध विधा का रूपक चित्रक|
ईसरदास प्रभृति सन्तों की,
भक्तमाल का मोती मानक|
पखाडों की महिमाओं का,
जगदम्बा का गाथा गायक|
उतर भारत चर्चित चिन्हित,
करणी माँ का अर्चक वन्दक|
चारू चरित उतम अन्तर्मन,
आदर्शों का शाश्वत सरजक|
काल-भाल पर अमिट उभरता,
अक्षर, सुन्दर, सत्य सार्थक|
अवतारों की पीढ़ी हूँ मैं,
सदाचार की सीढी हूँ मैं,
भावी का मैं पूर्व निमन्त्रण,
वर्तमान आमन्त्रण हूँ मैं||
चारण हूँ मैं||

चारणो मे सिंहढायच वंश की जागीरे

🚩 *सिंहढायच वंश की जागीरे*🦅

*🚩मोगडा🦅:- चारण नरसिंह जी  भांचलीया को मंडोर के शासक पडीहार नाहडराव ने सवंत 1116 मे हाथी घोडा व सोना जवेरात भेंट कर सोनानवेस आलीशान  "मोघडा" जागीर प्रदान की । राज्य के दसोंदी पद से सुसोभीत कर दरबार मे सन्मान भरा स्थान दीया।ईनके वंशज सिंहढायच कहेलाते है। यह जागीर ग्राम सिंहढायचो का मुळ स्थान है।*

रैवाडा:- चारण चैनसिंह बीजावत सिंहढायच को कुंपा जोगावत सिवाणा ने 1710 से पूर्व रैवाडा जागीर प्रदान की।

उजला:- ठा.लालसिंह नोखावत सिंहढायच को रावल गौवींद नरावत ने उजला जागीर प्रदान की।

पूनावा:-ठा.पूनाजी सिंहढायच को सीरोही राव अखैराज ने पूनावा जागीर प्रदान की।

कानावास:-सिंहढायच रतनसिंह को राव कानजी शिवराजोत ने कानावास जागीर मे दीया।

नेठवा:- मनीषी समर्थदानजी सिंहढायच को कश्मीर दरबार मेे से  कई कुरब कायदे प्रदान कीए।

ओसारा:- सिंहढायच गोंवीदसिंह को बांसवाडा रावल पृथ्वीसिंहजी ने 1825 मे ओसारा जागीर प्रदान की।

थेरासणा:-ठाकुर गोपालसिंह सिंहढायच को ईडर राजा राव कल्याणमलजी ने 1648 मे  30,000 आय के आलीशान चार गाँव का पट्टा जागीरी एनायत कीया।दरबार के सभी कुरब कायदे प्रदान कीए।

भारोडी:-
1865 के आसपास ठाकुर खुमानसिंह सिंहढायच को महाराणा शंभुसिंह जी ने भारोडी जागीर प्रदान की ।

*जयपालसिंह (जीगर बन्ना)थेरासणा*

और सिंहढायचो के जागीर गाँवो के ईतीहास की जानकारी कोई जानते हो तो कृपया 7984994645 पर मुजे मेसेज करे🙏🏾

महाराणा सांगा और शूरविर चारण ठा. जामण जी सौदा

*सेणुंदा ठिकाने के शूरविर चारण ठाकुर जामण जी सौदा*


  *मेवाड़ के भीलवाड़ा जिले में  ठाकुर जामण जी सौदा सेनुदा गाँव के जागीरदार थे । ये अपनी विद्वता व वीरता के लिए प्रसिद्ध थे* । *आपके पिता जी पालम जी व दादा जी का नाम ठाकुर बाजुड़ जी था* ,

*बाबर व राणा सांगा के बीच हुए 1527 ई के युद्ध मे ये राणा सांगा के साथ स्वयं युद्ध मे सेनापति के पद से लड़े थे* ।
*राणा सांगा के मस्तक में तीर लगने से ये जब गायल होकर मूर्छित हो गए थे । तब इन्हें युद्ध क्षेत्र से हटाकर बसवा लाया गया था । मुर्छा खुलने पर वीर राणा सांगा को युद्ध से हटाए जाने का बहुत ही दुख हुआ तब ठा. जामण सौदा ने राणा सांगा को सांत्वना दी कि युद्ध से लौटने के कारण कोई योद्धा अपयश का भागी नही होता है । भगवान कृष्ण स्वयं जरासध से युद्ध मे सात बार भागे थे किंतु आठवी बार विजयी होकर जरासंध का वध कर दिया । आज हम लोग मूर्छित अवस्था मे आपको युद्ध भूमि से उठा लाए है पर कल जब आप पुनः स्वस्थ होकर बाबर पर विजय प्राप्त करेंगे तब आपका युद्ध भूमि से लौट आना ही मेवाड़ के गौरव का कारण बनेगा* ।

*बाबर से  युद्ध में पराजित होने के कारण राणा सांगा बहुत ही निराश हो गया था तथा अत्यंत उदास रहता था वह न तो कभी महल से बाहर आता था व न ही किसी से मिलता जुलता था*

*तब जामण सौदा ने एक गीत की रचना कर राणा सांगा को सुनाया । उस गीत को सुन कर राणा सांगा इतने प्रभावित हुए की उन्होंने बकान नाम गाँव जामण सौदा को भेंट किया था । जामण सौदा एक युद्ध नायक थे तथा सन 1584 ई में माडु के बादशाह से लड़ते हुए पीली खाल में वीर गति को प्राप्त हुए थे । जामण सौदा के लिखे हुए कई डिंगल गीत उपलब्ध होते है* ।


*चारणाचार पत्रिका उदयपुर*
*सुल्तान सिंह देवल*

विर चारण खीमजी दधवाडीया और मेवाड



*धन राणा इकलिंग* ,
*धन मेवाडा देश* ।

*धन जैमल दधवाडिया*
*जीण घर खीम नरेश*


*धारता गाँव केउदयभाण जी के  पुत्र  खीम जी के नाम पर पढ़ा खेमपुर ठिकाने का नाम*

*मेड़ता परगने के दधवाड़ा गाँव से चितोड आये जेतसी को मिले धारता गाँव के उदैभान जी के पुत्र खीम जी अपनी किस्मत आजमाने मेवाड़ के ही सारंगदेवोत के ठिकाने बाठेड़ा के राव भोपत जी के पास आये*

*राव भोपत जी बाठेड़ा के जागीरदार थे व बहुत ही समझदार व गुणग्रही थे । उनकी समझदारी के चर्चे दूर दूर तक फैले हुए थे*
*खीम जी धारता से सुबह अपना धोड़ा लेकर बाठेड़ा के लिए निकले चलते चलते दोपहर हो गई थी सूरज सिर पर था तो खीम जी ने सोचा कि थोड़ा आराम कर लूं यह सोच कर वह एक घने पेड़ के नीचे साथ लाये चूरमा खा कर कुछ देर आराम करने लग गये ।  थोड़ी देर बाद उनके चेहरे पर धूप आने लगी तो वहां एक सर्प अपने फन से उनके मुंह पर छाव कर रखी थी तभी वहां से गुजर रहे सेठ ने यह नजारा देखा तो वह रुक गया व खीम जी के जगने का इंतजार करने लगा थोड़ी देर बाद खीम जी की नींद खुली तो साँप अपने बिल में चला गया तो सेठ जी ने खीम जी से आज के उनके सुकून सेठ को देने को कहा तो खीम जी बचपन से बड़े हुसियार थे मन ही मन उन्होंने  सोचा कि सेठ जी ने जरूर कुछ अच्छा देखा होगा तो खीम जी ने मना कर दिया सेठ जी के लाख समजाने पर भी खीम जी ने हा नही की तब सेठ ने कहा कि ठीक है एक वचन दे दो की जब आपकी नोकरी लग जाय और आप बहुत बड़े आदमी बन जाओ तो मुझे अपने पास नोकरी पर  रखना खीम जी ने हा कर दी  । और दोनों अपने अपने राश्ते निकल गये*

*सन्ध्या होते होते खीम जी बाठेड़ा पहुच गए वहां रावले में जाते ही राव भूपत जी को मुजरा किया तो चारण के बेटा होने के कारण राव ने भी मर्यादापूर्वक खड़े होकर कर खीम जी का ससम्मान करते हुए अपने पास बिठा कर पूरा परिचय लेते हुए आना का कारण पूछा  । कुछ देर बात करने में बाद  खीम जी का डेरा करवा दिया । खीम जी की वाक चतुराई रोबीले चेहरे तमीज व तहजीब से बहुत प्रभावित हुए । और खीम जी को अपने पास रख लिया । कुछ ही समय मे खीम जी ने कुछ ही समय मे राव जी का विश्वास जीत लिया अब क्या था अब तो राव जी जहां भी जाते खीम जी राव जी के साथ कहि भी ठिकाने में पधारे तो खीम जी साथ, शिकार पर जावे तो खीम जी साथ , उदयपुर महलो में आवे तो खीम जी साथ*,

*एक बार महाराजा करन सिंह जी ने अपनी सेवारत एक नरुका राजपूत को नाराज होकर  मरवा दिया था उस नरुका राजपूत कर छोटे भाई ने उसी दिन साफा फेककर सिर पर अंगोछा बांधकर कसम खाई की जब तक अपने भाई की मौत का बदला ना ले लू तब तक साफा नही बांधूगा । यह बात खीम जी ने राव भूपत जी से खीम जी ने सुन रखी थी*।

*एक दीन खीम जी उदयपुर दरबार के पास जा रहे थे राश्ते  एक शिकलिकर के वहा एक  अंगोछा बांधे गुड्सवार पर नजर पढ़ी जो शिकलिकर को यह कहते हुए सुना कि इस तलवार की धार ऐसी करना कि किसी दुसरे की तलवार पर ना हो मुह मांगा पैसा दूँगा खीम जी बड़े समझदार व आगामी स्तिथि को भाप चुके थे खीम जी ने उसके रोबीले चेहरे आखो में गुस्सा सिर पर अंगोछा देख कर समझ गए कि यह वही नरुका राजपूत है और आज कोई ना कोई अनिष्ट करेगा*

*खीम जी भी दूसरी गली के सिकलिकर को अपनी तलवार की धार के लिए देकर चले गए पर खीम जी को नीद कहा खीम जी सोच रहे थे कि यह नरुका करेगा क्या महाराणा तक तो पहुच नही सख्ता क्यों कि पहरा सख्त है सोचते सोचते खीम जी ने सोचा कि यह जरूर कुँवर जगत सिंह जी को यह कोई नुकसान पहुच सख्ता है क्यों कि कुँवर जगत सिंह जी को शिकार का बहुत सोख था वह हर रोज आपने मित्रो के साथ मछला मंगरा पर शिकार को जाते थे । राणा जी  रोज कुँवर जगत सिंह को अपने महलो के झरोखे से आते व जाते देखते थे*।

*सुबह होते होते खीम जी सीतला माता। मंदिर के वहा पहुच गए थोड़ी ही देर में वह अंगोछा बाँधे नरुका भी आ गया  नरुका ने सोचा यह कोई कुँवर के साथ शिकार पर जाने वाला गुड्सवार होगा  नरुका कुँवर जगत सिंह जी का इंतजार करने लगा खीम जी भी सतर्क थे । थोड़ी ही देर में महलो की तरह से 15 से 20 लोगो के हसने की आवाज व घोड़ो के तापो की आवाज सुनाई दी नरुका ने अपने घोड़ा की लगाम पकड़ अपना हाथ तलवार की मुठ पर रख दिया खीम जी को समझने में देर नही लगी नरुका आगे बढ़ा और अपने घोडे को कुँवर जगत सिंह के पास लगाते हुए जोर से चिल्लाया की सावधान कुँवर में अपने भाई का बदला लेने आया हु यह सब नजारा महलो से राणा जी देख कर घबरा गए कि आज तो कुँवर जी गए मगर अगले ही पल में देखा की खीम जी ने  घोड़े को आगे बढ़ाया ओर तलवार निकाल कर तूफान की तरह अपनी तलवार से नरुका के दो  टुकड़े कर दिए और अपना घोड़ा गुमा कर बेठेड़ा पहुच गए*

वहां जाकर राव भूपत जी को सारी कहानी बता दी राव जी ने खीम जी को गले लगाया व कहा कि शबाब खीम जी शाबास आज तो आपने कमाल कर दिया मेवाड़ केके धणी को बचा लिया तेरे इस कार्य से राणा जी तुज से तो खुश होंगे ही पर आज मेरा रुतबा भी बढ़ गया राव जी खीम जी को साथ लेकर महलो में पहुचे*

*वहां पहुचते ही कुवर जगत सिंह जी खीम की को पहचान लिया कि यही वो गुड्सवार था जिसने नरुका को मार गिराया*
*राणा जी का खुसी का कोई पार  नही था राणा जी ने खीम जी को अपने गले लगा कर कहा मेरे तीन बैठे थे आज से चार हो गए  ओर खीम जी का खर्च भी दूसरे राजकुमार की तरह राज कोष से बांध दिया*

*महाराणा करण सिंह जी के स्वर्गवास होने के बाद जगत सिंह जी सिंहासन पर बैठ कर राज्य संभाला तब खीम जी को सत्तर हजार सालाना की आमदनी वाला गाव ठिकरिया इनायत किया और महाराणा ने इस गाँव का नाम ठिकरिया से खिमपुरा रखा जो खीम जी  के नाम पर था जिसे आज खेमपुर के नाम से जाना जाता है यह उदयपुर जिले करीब 40 km है व  मावली तहसील में आता है । इनके वंसज आज भी खेमपुर व उदयपुर में निवास करते है*

*महाराज राज सिंह जी भी खीम जी को बहुत मॉन सम्मान देते थे एवम काका कह कर पुकारते थे*

*स्वभाव से खीम जी बड़े सकीन , दानी , व जिंदा दिली इन्शान थे*

*खीम जी वीर ओर  दानी के साथ साथ बड़े कवि भी थे उनकी वीरता के कारण मेवाड़ में उनको बड़ी जागीरी प्रदान की गयी*

*महाराणा अखे सिंह जी ने अपने पिता राज सिंह का बदला ले कर सभी दुश्मनो को मरवाया इस उपलक्ष में खीम जी ने एक गीत की रचना की जिससे सिरोही महाराव ने खीम जी को सिरोही जिले के कासिन्द्रा गाव दिया*

*सवत स्तर , सातो बरस , चेत सुदी चवदस* ,
*कायन्द्रा कवि खेम ने , अखमल दियो अवस्स*


*चारणाचार। पत्रिका उदयपुर*
*सुल्तान सिंह देवल*

विर अजीतसिंह जी मीषण ठिकाणा मेरोप

*चारण अजित सिंह जी गेलवा* (मिषण) ( *मेरोप डूंगरपुर* )

ब्रिटिश सरकार ने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता के बाद तुरंत हिंदुस्तान में हथियार पर पाबंदी लगा दी और उनके लिए अलग कानून बनाया। इसकी वजह से क्षत्रियों को हथियार छोड़ने पड़े। इस वक्त लूणावाड़ा के राजकवि अजित सिंह गेलवाले ने पंचमहाल के क्षत्रियों को एकत्र करके उनको हथियारबंधी कानून का विरोध करने के लिए प्रेरित किया। सब लूणावाड़ा की राज कचहरी में खुल्ली तलवारों के साथ पहुँचे। मगर ब्रिटिश केप्टन के साथ निगाहें मिलते ही सबने अपने शस्त्र छोड़ दिए और मस्तक झुका लिए। सिर्फ़ एक अजित सिंह ने अपनी तलवार नहीं छोड़ी। ब्रिटिश केप्टन आग बबूला हो उठा और उसने अजित सिंह को क़ैद करने का आदेश दिया। मगर अजित सिंह को गिरफ़्तार करने का साहस किसी ने किया नहीं और खुल्ली तलवार लेकर अजित सिंह कचहरी से निकल गए; ब्रितानियों ने उसका गाँव गोकुलपुरा ज़ब्त कर लिया और गिरफ़्तारी से बचने के लिए अजित सिंह को गुजरात छोड़ना पड़ा। वह गुजरात छोड़ कर राजस्थान के डूंगरपुर में आ गए यहां के महा रावल इनकी वीरता पर बड़े खुश हुए व इनको डूंगरपुर जिले में मेरोप गाँव एक ताम्र प्रत्र लिख  दिया जिसकी फोटो पोस्ट के साथ मे है ।  क्षत्रियोचित वीरता से प्रभावित कोई कवि ने यथार्थ ही कहा है कि-

*मरूधर जोयो मालवो, आयो नजर अजित;*
*गोकुलपुरियां गेलवा, थारी राजा हुंडी रीत*

*कानदास महेडु एवं अजित सिंह गेलवाने ने साथ मिलकर पंचमहाल के क्षत्रियों और वनवासियों को स्वातंत्र्य संग्राम में जोड़ा था। इनकी इच्छा तो यह थी कि सशस्त्र क्रांति करके ब्रितानियों को परास्त किया जाए। इन्होंने क्षत्रिय और वनवासी समाज को संगठित करके कुछ सैनिकों को राजस्थान से बुलाया था। हरदासपुर के पास उन क्रांतिकारी सैनिकों का एक दस्ता पहुँचा था। उन्होंने रात को लूणावाड़ा के क़िले पर आक्रमण भी किया, मगर अपरिचित माहौल होने से वह सफल न हुई। मगर वनवासी प्रजा को जिस तरह से उन्होंने स्वतंत्रता के लिए मर मिटने लिए प्रेरित किया उस ज्वाला को बुझाने में ब्रितानियों को बड़ी कठिनाई हुई। वर्षो तक यह आग प्रज्जवलित रही।


सन्दर्भ  अम्बा दान जी रोहड़िया
स्वतन्त्रा संग्राम में चरणों का योगदान आलेख जो कि मेवाड़ की परिवार परिचय पुस्तक में आ रहा है

चारणाचार पत्रिका उदयपुर
सुल्तान सिंह देवल 

हल्दीघाटी के सेनानायक विर चारण रामा सांदु

*हल्दी घाटी युद्ध मे चरणों का योगदान के आलेख से रामा सांदू जी का वर्णन*

मध्य काल मे कई चारण विद्धता के साथ ही साथ महान सेना नायक भी थे । उन्ही महान सेना नायको व योद्धाओ में एक प्रमुख नाम धर्मो जी सांदू के पुत्र रामा जी सांदू का आता है इनका जन्म मेवाड़ के चितोड़ जिले के  हुपा खेड़ी  गाँव मे हुआ ।वर्तमान में इस गाँव का नाम हापा खेड़ी के नाम से जाना जाता है ,  रामा जी सांदू महाराणा प्रताप की सेना के सेनानायक के रूप में हल्दी घाटी के युद्ध मे उपस्थित थे । उन्होंने बड़ी वीरता से युद्ध किया  तथा मुगल सेना को सर्वाधिक क्षति पहुचाने वाले दल के सेना नायक थे ।
दयाल दास राव द्वारा लिखित      " राणा रासो " में हल्दी घाटी के युद्ध का विस्तृत वर्णन मिलता है जिसमे एक भुजंगी छंद रामा सांदू के बारे में लिखा गया है ।

*भगी भीर भाऊ आशाउ उकढयौ*
*महा मोर मा झीनी के मुखख चढ़यो*
*जीते जुधध जोधा जुरे स्वामी कामा*
*पचारे तिन्हे पेखि चारनू रामा*

*ऐसी प्रकार "सगत रासो " के रचयिता गिरधर आसिया ने एक कपित लिख कर यह दर्शाया है कि युद्ध मे किन किन योद्धाओ ने भाग लिया।

उन्होंने लिखा है कि खमनोर नामक स्थान पर युद्ध हुआ राणा प्रताप की ओर से राजा रामशाह तंवर , ओर उसके दस सरदार आदि युद्ध मे काम आये*

बीकानेर के महाराणा पृथ्वीराज राठौड़ ने रामा सांदू के बलिदान पर एक डिंगल में गीत लिखा

इस युद्ध के ऊपर रामा जी सांदू ने  एक गीत लिखा जो महाराणा

 प्रताप द्वारा बहलोल खा लोदी के वध का सजीव वर्णन किया गया था ।

डॉ पुरषोत्तम लाल मेनारिया ने इतिहास से प्रमाणित करके उल्लेख किया है कि प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थ में उन्हें यह जानकारी के रूप में लिखी हुई मिली कि हल्दी घाटी में स . 1632 श्रावण बदी सातम राणा प्रताप सिंह जी कछवाहों मोनसिंघ सु बेढ़ तीण माह काम आया
1 सोनिगरा मोनसिंघ अखेरात
2 राठौड़ रामदास जेतमलोत ,
3 राजा राम सा तंवर गवालेर रो धणी
4 डोडियो भीम साडावत
5 पड़िहार सेठ
6 *सांदू रामा जी धरमावत*

इस प्रकार 6 प्रमुख सेनानायक युद्ध मे काम आय उसमें रामा सांदू जी सांदू भी महत्वपूर्ण स्थान रखते थे । कुछ ऐतिहासिक दशतावेजो में यह उलेख मिलता है कि हल्दी घाटी युद्ध मे  रामा जी सांदू घायल हुए थे । उनका उपचार किया गया । तथा वे महाराणा प्रताप के साथ निरंतर छापा मार युद्ध मे सेनानायक की तरह युद्ध मे मुगल सेना का सामना करते हुए देबारी में वीरगति को प्राप हुए थे  । एसी प्रकार मध्यकाल में रामा जी सांदू महान कवि के साथ साथ महान सेना नायक की तरह वीर गति को प्राप्त कर चारण जाती की कीर्ति को बढ़ा कर इतिहास में अमर हो गए



चारणाचार पत्रिका उदयपुर
सुल्तान सिंह देवल 

चारणो के गढपति (गढविर) पद का एक अनुठा उदाहरण


*शूरविर चारण ठाकुर कौलसिंह जी रतनु का प्राणोत्सर्ग*

चारण गढपति थे और वे गढ की रक्षा मे राह चलते भी अपना धर्म व मर्यादा समझकर मरना कबूल कर लेते थे। चारण का सत्य संभाषण व गढरक्षा का मर्यादित धर्म अप्रतीम शौर्य के साथ साथ हजारो वर्षो तक बडी शालीनता के साथ निर्वाहन कीया जाना देवी माता हिंगलाज की शक्ति से हो सका है। ईसलीए एसे उदाहरण सम्पूर्ण जगत मे केवल चारण राजपूत के सनातन मे ही मिलते है।

जोधपुर महाराजा मानसिंह के समय बीहारीदास खीची नामक राजपूत के एक अपराध पर महाराजा बडे क्रुद्ध हुए और उसे गीरफ्तार करने का आदेश दीया।खीची ने अपनी मृत्यु के भय से भागकर साथीण ठाकुर शक्तिदान भाटी की हवेली मे जाकर शरण मांगी ,भाटी ने उसे शरण मे रखा।
महाराजा ने बीहारीदास को वापीस सौंपने के कई संदेश भेजे परंतु शक्तिदान भाटी ने बीहारीदास को वापीस सोंपने का ईनकार कर दीया। मानसिंह ने कहा एसी हरकत कानाना ठाकुर भोमकरण ने की थी,जीसका परीणाम उसने भुक्ता,वही हस्र तुम्हारा भी होगा।शक्तिदान भाटी ने कहा भोमा तो बाई थी ,परंतु ये शक्तिदान तो भाई है अर्थात मर्द है। आपकी सेना का बडा स्वागत करुंगा।

महाराजा के लीए अब युद्ध करना अनिवार्य हो गया ।परंतु तब भी वे भाटीयो से युद्ध का बचाव चाहते थे।तभी मानसिंह ने अंतीम विकल्प चारण को चुना *चौपासनी ठाकुर कौलसिंह रत्नु* को भाटी को समझाने हेतु भेजा।

हवेली मे आगमन पर भाटी ने चारण का स्वागत कीया।कौलसिंह रत्नु ने राजा मानसिंह का क्रोधभरा संदेश कह सुनाया।युद्ध का विनाशकारी परीणाम भी बताया,और राजनैतीक द्रष्टि से समझाया।चारण की बात खत्म होते ही शक्तिदान भाटी ने कहा की "आप मुजे बताओ बाजीसा ईस समय मेरा धर्म बीहारीदास को शरण देना है या उनको छोडना ?"
 कौलसिंह चारण ने कहा "आपका धर्म शर्णागत की रक्षा करना है, परंतु मे तो ईसलीए केह रहा हु की ईस युद्ध मे आपकी ही हानी होगी"
भाटी ने कहा "हानी तो क्या मे धर्म रक्षार्थ प्राणोत्सर्ग के लीए भी तैयार हु"
ठाकुर कौलसिंह रतनु ने महाराजा मानसिंह को कहा था की मे कुछ भी कर के भाटी को समझा कर ही आउंगा
तब उन्होने कहा वापीस लौटकर राजा को कहने के लीये मेरे पास कोई शब्द नही है,ईसलीए मै भी अब आपके साथ रहुंगा ।

हवेली का दरवाजा बंद कर दीया गया चाबीया चारण कौलसिंह को दी गई।

*गढपति के लीए यह समय बडा विकट और दुरघर्ष पूर्ण होता है गढ ,महेल या हवेली (राजनीवास) के रनीवास की सुरक्षा व संरक्षण का संपूर्ण दायीत्व रहता है।*
*चारण के 'गढपति' महत्वपूर्ण पद के लिए शूरविर, धीर राजनीतीग्न,दुरदृष्टा,विवेकी,तीव्र निर्णय शक्ति,राजघराने के साथ अटूट श्रध्धा,विश्वास व रण कौशल्य आदी गुण चारण मे होने आवश्यक होते थे।चारण को सदैव राज्य की* *सामाजीक,राजनैतीक,आर्थीक व आन्तरिक मामलो की पूर्ण जानकारी रहती है।शासक अपनी गुप्त बाते सबसे गुप्त रख शकता था लेकीन गोपनीय से गोपनीय बात के लीये भी चारण से कोई पर्दा न था।*
आलीशान हवेली की चाबीया कौलसिंह के हाथ मे थमाकर शक्तिदान भाटी ने कहा, धर्म रक्षा का समय आ गया है बाजीसा  अब ये हवेली का दायीत्व आपका ,ये हवेली आपकी हुई और सेना से कहा सैनीको केशरीया धारण करो ,हमे विजय नही अमरत्व चाहीए।

ठाकुर कौलसिंह रतनु केशरीया धारण कर हाथ मे दो धारी तलवार लेकर कभी हवेली के बुर्जो पर जाते तो कभी नीचे मेदान मे आते वे भुखे शेर की तरह ईधर से उधर घूम रहे थे।

जोधपूर की सेना ने हवेली पर धावा बोला। सेना ने हवेली को चारो और से घेर दीया।तोपो और बंदुको की गर्जना से शहर थर्रा गया। पास पडोस वाले आवास छोड कर सुरक्षीत जगाह पर भाग खडे हुए। हवेली के मुख्य द्वार पर तोप लगा दी गई और हवेली का दरवाजा तोडने को तोप के गोले गरज उठे। दरवाजे के चीथडे उडने वाले थे,परंतु हवेली का दरवाजा कौन खोले ?हवेली अब कौलसिंह रतनु की थी। भाटी सेना मुकाबला करने मे कमजोर पड रही थी और दरवाजा टुटने का भी खतरा था। स्थिती को भली भाँती देखकर कौलसिंह जी चारण ने जय माताजी ,जय भवानी केह कर हवेली का दरवाजा खोला। तोप का पहला गोला कौलसिंह  की जंघा पर लगा। उनका पैर एक तरफ और कौलसिंह दुसरी तरफ!!! यह होता है चारण के गढपती (गढविर) पद का कार्य।चलती हुई मौत को अपने गले लगाने का धर्म। चारण सदैव तलवारो के बीच रहेते थे और तलवारे से कटकर विरगति पाते थे।ईस युद्ध मे सर्व प्रथम ठाकुर कौलसिंह जी रत्नु विरगती प्राप्त हुए।

संदर्भ:-
*चारण दीगदर्शन*
*बांकीदास री ख्यात*

*जयपालसिंह (जीगर बन्ना) थेरासणा*

*नोंध:-ईस पोस्ट को अधीक से अधीक शेर करे परंतु मेरे नाम के साथ छेडछाड ना करे।*

महाराणा प्रताप और चारण

जय मेवाड़🚩
जय महाराणा प्रताप🚩

*महाराणा प्रताप के सााथ उनके सहयोगी विर बलिदानी जेसा सौदा,केशव सौदा, रामा सांदू, गोरधन बोग्सा, सुरायची टापरिया का पूण्य स्मरण

प्रातः स्मरणीय *हिंदुआं सुरज* महाराणा प्रताप की जयंती पर जन जन के ह्रदय से निकलती अथाह प्रेम भावना  प्रकट होना संकेत है कि जनमानस आज भी अपने लोकनायक के प्रति नतमस्तक है । न जाने कितने राजा महाराजा हुए मगर सिर्फ महाराणा प्रताप का जो अमिट उच्च स्थान जनमानस में स्थापित है वो अतुल्य है। जो स्वयं जंगल में दर दर की ठोकरें खा रहा हो उनके साथ  युद्ध करने से जागिर मिलना तो दूर की बात वेतन व भोजन मिलने में भी संशय था। उस वक्त अनगिनत वीरों ने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। चारण समाज के वीरों ने भी हंसते हंसते अपने महाराणा के लिए अपनी जान मात्रभूमि के लिए समर्पित कर दी उनमें *जैसाजी सौदा केशव सौदा ,रामा सांदू , गोरधन बोग्सा,सुरायची टापरिया* प्रमुख थे।
 अपनी आन बान और शान के साथ मेवाड़ के स्वाभिमान को अक्षुण रखने वाले महाराणा प्रताप की अनन्य अनुपम संघर्ष गाथा व बलिदान को दुश्मन भी नम आंखों से स्मरण किए बिना नहीं रह सका ।
तत्कालीन समय में गांव गांव ढाणी ढाणी तक महाराणा प्रताप के स्वाभिमान संघर्ष को  पहुंचाया उस समय के कवि *दुरसा‌आढा* ने ।
भरे दरबार में महाराणा प्रताप की वीरता के वर्णन से  कवि ने अकबर को भी विचलित कर दिया था।

{अस लेगो अण दाग, पाग लेगो अण नामी।
गो आड़ा गवड़ाय, जिको बहतो धुर बामी।
नवरोजे नह गयो, न गो आतशा नवल्ली।
न गो झरोखा हेठ,  जेथ दुनियाण दहल्ली।

गहलोत राण जीतो गयो, दसण मूँद रसना डसी।
नीसास मूक भरिया नयण, तो मृत शाह प्रतापसी।

महाराणा ने अपने घोडों पर दाग नही लगने दिया (बादशाह की अधीनता स्वीकार करने वालों के घोडों को दागा जाता था)। उसकी पगड़ी किसी के सामने झुकी नही (अण नमी पाघ ) जो स्वाधीनता की गाड़ी की बाएँ धुरी को संभाले हुए था वो अपनी जीत के गीत गवा के चला गया। (गो आड़ा गवड़ाय ) (बहतो धुर बामी, यह मुहावरा है।  गीता में अर्जुन को कृष्ण कहते है कि, हे! अर्जुन तुम महाभारत के वर्षभ हो यानि इस युद्ध की गाड़ी को खींचने का भार तुम्हारे ऊपर ही है। )

तुम कभी नोरोजे के जलसे में नही गये, न बादशाह के डेरों में गए। (आतशाँ -डेरे) न बादशाह के झरोखे के नीचे जहाँ दुनिया दहलती थी। (अकबर झरोखे में बैठता था तथा उसके नीचे राजा व नवाब आकर कोर्निश करते थे। )
हे! प्रतापसी तुम्हारी मृत्यु पर बादशाह ने आँखे बंद कर (दसण मूँद ) जबान को दांतों तले दबा लिया, ठंडी सांस ली, आँखों में पानी भर आया और कहा गहलोत राणा जीत गया। ( प्रेषक- गणपत सिंह चारण)}

लगभग पांच सो साल पूर्व कवि दुरसा आढ़ा ने महाराणा प्रताप को राष्ट्र का गौरव व स्वतंत्रता का नायक‌ बताते हुए महाराणा प्रताप पर अमर रचनाएं बना कर उन्हें जन-जन के ह्रदय में सदा सर्वदा के लिए स्थापित कर दिया ।
पिछले कई दशकों से सर्वत्र महाराणा प्रताप जयंती मनाई जा रही है , हमें भी इस प्रथम स्वतंत्रता सेनानी की जयंती मनाकर अपना योगदान देने वाले वीरों को स्मरण करना चाहिए । ताकि जिन्हें इतिहास ने भूला दिया मगर हम उन्हें पुनः स्मरण कर इतिहास में वापस स्वर्ण अक्षरों में अंकित कर सकें।