क्षत्रिय चारण

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गुरुवार, 24 जनवरी 2019

पीठवा चारण और जैतमाल राठोड

*पीठवाचारण और जैतमालराठौङ !!*
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     *!! दोहा !!*

*पावन हूवौ न पीठवौ,*
*न्हाय त्रिवेणी नीर !*
*हेक जैत मिऴियां हूवौ,*
*सो निकऴंक सरीर !!*

पीठवा नामक चारण कुष्ठ रौग से पीङित होकर, इस कुष्ठ रोग से बहुत ही दुःखित होकर उससे छुटकारा पानेके लिए कितने ही तीर्थादि कर आया परन्तु उसका रोग नही गया ज्यों ज्यों दवा की मर्ज बढता ही गया ! उसने सुना कि रावल मल्लीनाथ का छोटाभाई सिवाणां का राजा जैतमाल जो कि भगवान का बङा भक्त था उसके स्पर्श से कोढ रौग दूर हो सकता है, एक दिस दैवयोग से पीठवा जैतमाल के गढमें  पंहुंच गया, *राव जैतमालजी* ज्योंहीं आ कर मिलने को बांह बढाई तो,पीठवा पीछे सरक गया और बोला कि मैं कुष्ठी हूं मेरा सरीर बिगङा हुआ है,मैं महापापी पातकी आपसे कैसै मिल सकता हूं मैंने इस दुःख से छूटने के लिए अनेक तीर्थों के साथ ही प्रयागराज तक स्नान कर लिया है परन्तु मेरे कर्मों का फल नही मिटता है, उसके ऐसै दीन और करूणामय वचन सुनकर जैतमालने कहाकि तुम डरो मत, मुझसे गले मिलो, यदि सनातन धर्म में मेरी दृढ आस्था व श्रध्दा है तो तुम्हारा शरीर सारा निष्कलंक हो जायेगा !!
*बस कहने मात्र की देरी थी, पीठवा का शरीर रोगमूक्त हो गया !!*
उसने *रावजैतमाल को दसवांसालिग्राम*
विरूद से विभुषित किया ! इस विषय में एक प्राचीन कविता की पंक्ति निम्नप्रकार है किः...........
*!!दसमौ साऴग्राम सदैवत,दिनतिण पीठवै विरद दियौ !!*

इस ईकिसवीं सदी में सब बातें व मर्यादा को भूल बिसरा दी है तो भी आज भी उस बात को जानने वाले चारण जब यदाकदा जैतमालोतों से मिलते समय दसवां साऴ ग्राम का स्मरण अवश्य ही करते हैं !!

*गीत पीठवा चारण रो!*
              *!! दोहा !!*
*तीर्थतीर्थ तोय,अड़सठ में अबगाहिया !*
*जेत कमधग्यो जोय,कनवोजे मेट्यो कलंक !!*
               *!! गीत !!*
*पण ग्रहियो जेत मिलन कज पातां,*
*ऐह ईखियातो जगत अछै !*
*अड़सठ तीर्थत पहल अवगाहे,*
*पीठवो गयो सिवयांण पछै !!*  !!1!!

*अधर रूधर चवन्तो आचो,*
*काचो देख हियों कम्पै !!*
*सलख सोमह भ्रम घणा हैत सूं,*
*जेत मिलण कज आव जपै !!*   !!2!!

*इहंग इम कहियो अन्नदाता,*
*अमो कमल नह भाग इशो !*
*सारो रषी बहै तन सड़ियो,*
*कहो मिलण रो बेत किसो !!*    !!3!!

*कहतो हसे मलफियो कमधज,*
*जग अचर जियो देख जुवो !*
*बांह ग्रहे मिळतो सुख बुझत,*
*हेम सरीखो शरीर हुवो !!*   !!4!!

*धिन धिन कहै पृथ्वी बड़ धारण,*
*काट कलंक निकलंक कियो !!*
*दसमो सालगराम सुदेवत,*
*दिनजिण पीठवे विरद दियो !!*  !!5!!
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राजेन्द्रसिंह कविया संतोषपुरा सीकर (राज.)

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