क्षत्रिय चारण

क्षत्रिय चारण
क्षत्रिय चारण

सोमवार, 1 जनवरी 2018

चारण - राजपूत परंपरा

*चारण-राजपूत परंपरा*

माँ शक्ति बीरवडी/वरवडी/वरुडी माता

आपसी फुट और मुस्लीम आक्रान्तकारो से पराजीत होकर और मेवाड मुस्लीमो के हाथ मे आ जाने से हम्मीर द्वारीका की तरफ जा रहे थे। रास्ते मे खौड ग्राम मे वरवडी जी के चमत्कारो की चर्चा  सुनकर वे ईनके द्वार पर आये और धर्म रक्षा की याचना की। शक्ति बरवडी जी ने राणा हम्मीर को मेवाड राज्य पुनःप्राप्त होने का आशीर्वाद दीया तथा अपने पुत्र बारु को 500 घोडो सहीत सेना तैयार कर के मेवाड हासील करने भेजा।

उस प्रसंग का एक डींगल गीत है-

*यळा चीतोडा सहे घर आसी। हु थारा दोखीयो हरु।।*
*जणणी ईसी कहु नह जायौ।कहवै देवी धीज करु।।१।।*
*रावल बापा जीसौ रायगुर।रीझ -खीज सुरपत री रुंस।।*
*दस सहंसा जैहो नह दूजौ। सकती करेै गळा रा सूंस।।२।।*
*मन साचै भाखै महमाय। रसणा सहती बात रसाळ।।*
*सरज्यो व्है अडसी सुत सरखो। पकडे लाऊँ नाग पयाळ।।३।।*
*आलम-कलम नवेखंड एळा। कैलपुरा री मींढ किसौ।।*
*देवी कहै सुण्यौ नह दुजौ । अवर ठीकांणे भूप ईसौ।।४।।*


>हम्मीर ,बारुजी को लेकर वापीस आया और युद्ध कर वीजय प्राप्त की। वीजय प्राप्त होने पर ईसकी कृतग्नता मे महाराणा हम्मीर ने बारु का भारी स्वागत कीया।
बारह गांव की जागीर प्रदान की,बैठक की ताजीम,अतुल्य स्वर्ण  जवेरात,सात हाथी और 500 घोडे भेंट कीये।
हम्मीर ने बारु सौदा के पैरो का पूजन कीया। अपने राज्य का गढपती - दसोंदी बनाया । राणा हम्मीर बारुजी को अपना बडा भाई मानते थे ।
हमीर ने अपने वंशजो को शपथ दीलाकर कहा की ईस बारु सौदा के वंशजो से सीसोदीया कभी भी वीमुख नही होंगे।
यह राज्य मेने ईनकी कृपा से प्राप्त कीया है।

ईस प्रसंग का एक डींगल गीत उल्लेखनीय है-

*बैठक ताजीम गांम गज बगसे। कव रो मोटो तोल कीयो।।*
*वडदातार हेम बारु ने। दे ईतरो पद गढपती दीयौ।।१।।*
*पौल प्रवाह करे पग पुजन। वडा आवास छोळ द्रग वेग।।*
*सिंधुर सात दोय दस सांसण । नागद्रहै दीधा ईम नेग।।२।।*
*सहंसदोय महीखी अन सुरभी।कंचन करहा भरी कतार ।*
*रीझे दीयां पांच सौ रैवत । अधपत झोका दातार।।३।।*
*कोड पसाव पेखजग कहीयौ। अधपत यों दाखे नीज ओद।।*
*श्रीमुख शपथ करे अडसी सुत। सौदा नह वरचै सीसोद।।४।।*

मेवाड के सीसोदीया ओ की आराध्य देवी मा बरवडी जी है । राणा ने  बरवडी जी को चीत्तोड आने का बुलावा भेजा। मां चीत्तोड पधारे। राणा जीने बडे मानसन्मान के साथ उनकी बहोत सेवा की, और राणा हमीर ने चीतौड मे मां शक्ती वरुडी की दया व कृपा की स्मृती मे भव्य मंदीर बनवाया,जो अन्नपूर्णा के नाम से प्रसीद्ध है।
ईन्ही बारु जी सौदा के वशंज सौदा बारहठ कहलाते है।

*जीगर बन्ना थेरासणा*

देवजाती /देववंशी चारण

🔴 *देववंशी/देवजाती- चारण*


>कलम व तलवार की धनी चारण जाति ने अपनी साहित्हिक प्रतिभा व संगठनात्मक शक्तियों का संयोजन स्वतंत्रता समर में भाग लेकर किया। चारण जाति की उत्पति दैवी से हुई है, वह खुद भारत वर्ष मे शासक(जागीरदार) जाती थी, चारण जाती  बडे बडे शासको की सहयोगी बनकर,अधिक रस लेकर उनकी सहायता करती थी।

>राजपूत राज्यो में चारणों का स्थान बड़ा उच्च था, चारण ही इतिहासकार,
कुशलयोद्धा, राजकवि व मंत्री हुआ करते थे ।

>भागवत में नारद को ब्रह्मा ने जो सृष्टिक्रम बतलाया उसमें चारणों का उल्लेख मिलता है, यहा नारद, ब्रह्मा, शिव, राक्षस, सूतगण, देवता, असुर, चारण, खग, मृग, सर्प, गंधर्व, उरग, पशु, पित्तर, सिद्ध, विद्धाधर, वृक्षादि की गणना की गई है
इससे स्पष्ट होता है कि चारण मानवेतर सृष्टि माने गये है, यह जाति किसी समय स्वर्ग में रहती थी, और देव स्वर्ग में भी इनका समावेश था।

> *चारण के देवजाती होने के सेंकडो प्रमाण है जो नीम्न है:-*

: देवसर्ग के विभाग और स्वरुप:
हीम वर्ष के सम्पूर्ण स्वर्ग मे देव जाती के लोग रहा करते थे जो आठ सर्गो मे विभक्त थे।ईस सर्गो मे किसी  मे एक,किसी में दो और किसी में तिन जाति समूह है। ईस प्रकार से आठ सर्गो की कुल 14 देवजातीयाँ वहाँ निवास करती थी। देव जाति के ईन सर्गो के बारे में श्रीमदभागवत पुराण के तृतीय स्कंद के दसवें अध्याय मे लिखा है-

देवसर्गश्चाष्टविधो  विबुधा पितरोसुराः।
गन्धर्वाप्सरस सिद्ध यक्ष रक्षांसि चारणाः।।२७।।
भूत,प्रेता,पिशाचाश्य विध्याध्रा किन्नरादयाः।
दशैत विदुराख्याताः सर्गास्ते विश्वसृक्कृताः।।२८।।

देवताओ के ८ जाती सर्ग है-
१. बीबुध,२.पितर,३.असुर,५गंधर्व,अप्सरा(ईन दोनो का एक सर्ग),५.यक्ष,राक्षस(ईनदोनो का एक सर्ग),६.भूत,प्रेत,पीशाच(ईन तीनो का एक सर्ग),७.सिद्ध,चारण,विध्याधर(ईन तीनो का एक सर्ग),८.किन्नर ।
वरुण अथवा ब्रह्मा ने जीन दो अथवा तीन को साथ मे स्थान दिया है,उनका एक सर्ग अर्थात् समूह माना है।

>चारण की उत्तपति और वीकास के बारे मे वेद और पुराणो की गुंज ईसके अति प्राचीन होने की साक्षी देते है।फलत:यह बात स्वतः प्रमाणीत है कि ईस जाती का प्रादुभार्व एक एसे समय मे हो चुका था जब वर्ण व्यवस्था का नामोनिशान तक नही था।
यह जाती दक्ष पुत्री व शिव की सन्तान है। सति व शिव  के ये सरंक्षण मो वेदो की रुचाएँ रचने के कारण चारण रुषी कहलाते थे। सति के 52 पुत्र(गण)जो दक्ष यग्य मे सति की सुरक्षा मे साथ थे। सति के यग्य कुण्ड मे कुदकर स्वयं को जला देने पर ईन गणो (चारणो) ने दक्ष का वध कर अप्रतिम शौर्य का परीचय दीया। जीस पर उपस्थित देव दानव आदी ने ईनको विर पद से विभूषित किया तब से विर कहलाये ।

> वनपर्व 441 श्रीमद् भागवत में चारण जाति का आठ प्रकार के देवसर्ग में परिगणित किया गया है, *'चारयन्ति कीर्तिमति चारण'* जो स्वयं धर्म के पथ पर आरूढ़ होकर दूसरों को धर्मोंत्थान की ओर प्रेरित करे वो चारण।

>चारण शब्द योद्धा,सिद्ध, कवि इत्यादि पदों के योग में प्रयुक्त होता है जिससे इनकी सिद्धि सम्पन्नता तथा युद्ध कुशलता व काव्य प्रतिभा साक्षित होती है, देवसर्ग में परिगणित यह चारण जाति देवताओ के साथ विचरण करती थी।

> महाभारत के भीष्मपर्व 20वें अध्याय का 16वॉ श्लोक चारणों की महत्ता को प्रदर्शित करता है, महाभारत में उल्लेख है - कौरव, पांडवों की दोनों तरफ की सेना और अर्जुन को युद्ध के लिए तैयार देखकर श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि हे अर्जुन, तू देवी की स्तूति कर, वह तुझे विजय देगी , उस समय अर्जुन ने स्तुति की -
*तुष्टि: पुष्टि धृति दीप्ति, श्रद्धादित्यविदिनी ।*
*मूर्ति मति मतां संख्य, वीक्षसे सिद्ध चारणै:।।*

> रामायण काल में इनका निवास लंका में वाल्मीकि ने बतलाया है। ये अपने विशिष्ट गुण, कर्म के कारण चतुवर्णात्मक भारतीय समाज में भिन्न निरूपित हुए हैं। देव यज्ञों में सम्मिलित होना इनका अनिवार्य अधिकार था।

>महाभारत काल में इस जाति ने यायावार नामक आश्राम धर्म की स्थापना कर एक यायावरीय उपनिषद की रचना भी की, इस जाति के लोंगों के गोत्र भी आष होने से इनका ऋषियों से संबंध सिद्ध होता है।

सुन्दरकाण्ड 42, 161 : सद् धर्म की साधना में योगदान चारणों के जीवन का लक्ष्य रहा है।

>बालकाण्ड सर्ग 45, श्लोक 33 *"इमं आश्रम मृत्यसृज्य सिद्ध चारण सेविते हिमवत् शिखरे रम्ये तपस्तेये महायता:"* हनुमान जब सीता का अन्वेषण कर रहे थे तो उन्हें सीता के धर्म परिग्रह का वृत चारणों से ज्ञात हुआ था(सुन्दरकाण्ड 44 सर्ग 29) ,चारणों ने ही सीता के कुशल वृत के मंगल संवाद से संतप्त हनुमान के संताप को नष्ट किया था।

>पंचम् वेद महाभारत में भी चारण जाति के प्रसंग उल्लेख हुए है (आदि पर्व 126/11 ) अर्जुन ने इन्द्र से अनुमति प्राप्त कर सिद्ध चारण से शासित लोक में जाकर पांच वर्षों तक शस्त्र विद्या का अभ्यास किया था।

> *यजुर्वेद* में चारण शब्द का प्रयोग ऋचा में हुआ है, यजुर्वेद अध्याय 6, मंत्र 2 -
*"यथोमां वाच कल्याणी मानवदानि जनेभ्य:*
*राजन्याभ्यां शूद्राय चार्चाय च स्वत्व चारणयं"*
 इस ऋचा में चार वर्णों से पृथक उस चारण शब्द का उल्लेख यह बतलाता है कि इन चार वर्णों से भिन्न उद्गम वाली यह एक विशिष्ट जाति थी।

> ईसके अतिरिक्त
पद्मपुराण,गणेशपुराण,आदीत्यपुराण,
विष्णुपुराण,शीवमहापुराण,स्कन्दपुराण,
मत्स्यपुराण,ब्रह्मपुराण,वायुपुराण,
वामनपुराण,
भविष्यपुराण,मार्कण्डेय पुराण,विष्णुपुराण,
गर्गसंहिता,मनुस्मृति,अमरकोष,
हलायुधकोष,अष्टाध्यायी,नालन्दाविशाल
शब्दसागरकोष,भगवदगोमंडल,कालीदासकी रचनाओ,हर्ष चरीत्र,प्रसन्नराघव,राजतरंगिणी,अनर्ध राघव,पृथ्वीचन्द्र चरीत्र ईत्यादी जैसे प्राचीन महान ग्रंथो मे, और तो और बहोत से जैन ग्रन्थो मे भी चारणो के बारे में दिया गया उल्लेख ध्यान देने लायक है ।

चारणो का शस्त्र-शास्त्र,पर असाधारण अधीकार था,
अपीतु चारण क्षत्रीय वर्णस्थ माने जाते है।

*जीगर बन्ना थेरासणा

टोकरा गाँव का ईतीहास (ठीकाना)

*टोकरा गाँव का ईतीहास(ठीकाना)*

*शाख:-सौदा बारहठ*

जामनगर(सौराष्ट्र) के खौङ गाँव के चक्खङा शाखा के नरहा चारण के घर 13वीं सदी में एक कन्या का जन्म हुआ। जन्म के समय ही मुँह में दाँत होने के कारण ब्राह्मणों ने इसे अनिष्टकारी व अमँगलकारी बताया। भयवश इस कन्या को बूर(गाङ) दिया गया। ये सब करने के 15 दिन बाद यह कन्या जीवित मिली। इस चमत्कार के बाद यह कन्या आमजन के बीच बूरुङी(बिरवङी) नाम से शक्ति रूप में पूजित हुई।

चारणों की २४ मूल शाखाओं में 'मरुत' नाम की शाखा है; जिसकी 'पेटा' नाम की उपशाखा है। पेटा की ५२ उपशाखाओं में से एक कापल(कायपल) है। कायपल उपशाखा में आदिपुरुष के नाम से 'देथा' उपशाखा चली। माँ बिरवङी जी का विवाह इसी देथा उपशाखा के 'भूयात जी अथवा करमसेण जी' (अलग-अलग विद्वानों के मतानुसार) जो कि बनासकांठा क्षेत्र में 'संखङो' ग्राम का स्वामी था, से हुई।

सीसोदे गाँव के गुहील राजा 'हम्मीर' उस समय अपने पूर्वजों का मेवाङ राज्य पुन: प्राप्त करने के लीए संघर्ष कर रहे थे; जो कि १३०३ ईस्वी में अल्लाऊद्दीन खिलजी द्वारा हथिया लिया गया था।
हम्मीर ने माँ बिरवङी जी की शरण प्राप्त की। माँ बिरवङी ने हम्मीर को विजय वरदान दिया और अपने पुत्र बारू देथा को 500 घोङों सहित हम्मीर की मदद के लिए भेजा।
बारू ने हम्मीर को वचन दिया कि विजय प्राप्त होने पर वह हम्मीर को 500 घोङे मूल्य के बदले देगा। और यदि पराजय होती है, तो ये 500 घोङे हम्मीर को बिना किसी मूल्य के भेंट कर देगा। उक्त सौदे के कारण बारू; 'बारू सौदा' के नाम से जाना गया और आज भी इसके वंशज *'सौदा'*उपटंक से जाने जाते हैं। विजयोपरांत हम्मीर ने बारू को अपना 'गढपति' और 'दसोंदी' बनाया; बैठक की ताजीम, 7 हाथी, 500 घोङे, पैरो मे सोने के लंगर,सैंकङों ऊँट व गाय-भैंसें, अतुल्य स्वर्ण भँडार व 12 गाँवों की सोना नीवेस जागीर  अर्पित कर पग-पूजा की तथा अपने वंशजों को सौदा चारणों से कभी ना विरचने(विमुख होने) की सौगंध दिलवाई।


हम्मीर से ही मेवाड के शासको को राणा बीरुद प्राप्त है ।

राणा हम्मीर ने चित्तौङ के कीले में माँ बिरवङी जी का भव्य मंदिर बनवाया। आज भी हम्मीर के सिसोदिया वंशज माँ बिरवड़ी जी को बिरवड़ी माँ, बाण माता, अन्नपूर्णा आदि नामों से कुलदेवी के रूप में पूजते हैं।
बारू सौदा कालांतर में राणा हम्मीर के साथ लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ। इसी बारू की कुल परंपरा में सौदा पालम, सौदा बाजूड़, सौदा जमणा, सौदा अमरसिंह, सौदा नरू, सौदा जैसा, सौदा केशव ओनाडसिंह ,कृष्णसिंह ,केशरीसिंह,जोरावरसिंह,प्रतापसिंह सहित और भी बगोत से विर सौदा सिरदारों ने मेवाड़ी स्वातंत्र्य और स्वाभिमान की रक्षा हेतु कई युद्धो मे भाग लेकर वीरगति का वरण किया।

बारु सौदा को राणा हम्मीर द्वारा प्राप्य उमराव पद और 12 गांवो की जागीरी मे से ही एक ठीकाना है *पाणेर*।
 बारुजी सौदा की 4थी  पीढी मे पाणेर के दीपसिंह सौदा को ईडर के राजा राव विरमदेव ने ईडर में हठोज गांव की जागीर एनायत की।
 श्री दीपसिंह जी के सुपुत्र ठाकुर देवीदानजी सौदा को 1657 चैत्र सुद 3 के दीन ईडर के राजा राव कल्याणमलजी ने *टोकरा* जागीर अर्पीत करके लाखपसाव देकर दरबार मे बैठक की ताजीम सम़्मान पूर्वक दी।

ठाकुर देवीदानजी अपने छोटे भाई को हठोज देकर  टोकरा मे स्थिर हुए।
फीर से ठाकुर साब को दांता के महाराजा वाघजी की और से राणोल की जागीर प्राप्त हुई थी।

ठाकुर साब ने कोई पाठशाला मे से शीक्षा प्राप्त नही की थी ,मां सरस्वती उनके कंठ मे थी। वे खुद गुजराती,मारवाडी,डींगल,और पींगल भाषाओ के प्रखर जानकार थे । उनके तीन पुत्र थे:
१)मेशदानजी,२)मेघसिंहजी,३)रघुनाथजी
ईडर और दांता राज्य के दरबार मे ठाकुर साब का स्थान उच्च और सन्मान भरा था । ईन दोनो राज्य से समय समय पर ठाकुर साब को पुरस्कृीत कीया जाता था ।
ठाकुर साब ने भक्ति रस मे बहोत से काव्य लीखे थे,पर उनका साहीत्य आज अप्राप्य है। ७० वर्ष की आयु मे ठाकुर साब देवीदानजी का स्वर्गवास टोकरा मे हुआ।
उनके वंशज टोकरा के जागीरदार है और चारण समाज मे खानदान कहलाते है।

ठाकुर साब देवीदानजी के वंशजो मे
बहोत से विद्धवान कवि और शूरविर हुए।

जीनके नाम नीम्न है:
ठाकुर ईन्द्रसिंह जी सौदा,
ठाकुर गोपालसिंह जी सौदा,
ठाकुर छत्रसिंह जी सौदा,
ठाकुर उमेदसिंह जी सौदा,
ठाकुर खुशालसिंह जी सौदा,
ठाकुर जसराजसिंह जी(जसजी) सौदा,
ठाकुर आईदान जी सौदा,
ठाकुर हरनाथ जी सौदा(हठोज)

साबरमती नदी के उपर नीर्माण होने वाले धरोई बांध के भराव क्षेत्र में टोकरा गांव आ जाने से इस ठीकाने के सौदा बारहठो को अन्यत्र जमीने सरकार श्री तरफ से एनायत की गई।

आज भी श्री ठाकुर साब देवीदान जी सौदा के वंशज उनकी उच्चतम ख्याती की गवाही देते हुए  मेवा-टोकरा,विरेश्वर-टोकरा,गढवी कंपा और हठोज ईत्यादी गांवो मे सोनानीवेस जमीनो के स्वामी है।

जय माँ बीरवडी जी
जय माँ करणी जी
जय माँ आवड जी

*जयपाल सिंह (जीगर बन्ना) थेरासणा*